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(३८) जिस स्थान पर भगवान् कायोत्सर्ग में लीन थे, उस स्थान पर ईश्वर ने एक विशाल चैत्य निर्मित कराया और उसमें भगवान् की मूर्ति स्थापित की। वह चैत्य 'कुक्कुटेश्वर'' के नाम से विख्यात हुआ।
उसके बाद भगवान् पुनः विहार के लिए निकले । विहार करते हुए वे . एक ग्राम में पहुँचे और एक तापस के आश्रम में गये। वहाँ कुएँ के समीप वट के वृक्ष के नीचे ध्यान में खड़े हो गये। यहाँ मेघमालि ने अपने पूर्वभव का स्मरण करके नाना प्रकार के उपसर्ग उपस्थित किये। उसने पहले शेर, हाथी और बिच्छुओं से भगवान् पर आक्रमण किया। पर, जब भगवान् में भय का कोई लक्षण प्रकट न हुआ, तो वह स्वयं लज्जित हो गया। फिर मेघमाली ने अपार वृष्टि की। अवधि-ज्ञान से धरणेन्द्र ने मेघमाली के उपसर्ग को देखा और अपने सात फनों से उसने भगवान् को छत्र लगाकर उनकी रक्षा की। धरणेन्द्र ने यहाँ भगवान् की बड़ी स्तुति की। परन्तु, मेघमालि के उपसर्ग और धरणेन्द्र की स्तुति दोनों पर ही भगवान् तटस्थ रहे । हार कर मेघमाली भी भगवान् के चरणों में आ गिरा । वहाँ से भगवान् काशी आश्रमपद उद्यान में गये । यहाँ दीक्षा लेने के बाद (८३ दिनों तक आत्मचिंतन करते हुए ८४ ३ दिन) घाति कर्मों के क्षय हो जाने पर, चैत्र वदि ४ के दिन, भगवान् को केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन प्राप्त हुए । अश्वसेन, उनकी पत्नी बामा, तथा पार्श्वकुमार की पत्नी प्रभावती भगवान् के प्रति आदर प्रकट करने के लिए वहाँ आये । ___केवल-ज्ञान के बाद भगवान् गर्जनपुर, मथुरा', वीतभय', (१) पार्श्वनाथ-चरित्र, भावदेव सूरिकृत, सर्ग ६, श्लोक १६७. (२) पार्श्वनाथ-चरित्र, भावदेव सूरिकृत, सर्ग ६, श्लोक २१३. (३) पार्श्वनाथ-चरित्र, भावदेव सूरिकृत सर्ग ६, श्लोक २४४-२४५' (४) पासनाह-चरियं, देवभद्र-रचित पत्र २२१ (५)
, पत्र ४८०, वर्तमान मथुरा। . (६) जैन-ग्रन्थों मे इसे सिन्धु-सौवीर की राजधानी बताया गया है।
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