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________________ भगवान् जब युवावस्था को प्राप्त हुए तो कुशस्थल (कन्नौज)' के राजा प्रसेनजित की पुत्री परम सुन्दरी प्रभावती के साथ उनका विवाह हुआ। एक दिन वे दोनों प्रासाद के झरोखे में बैठ कर नगर का निरीक्षण कर रहे थे, तो उन लोगों ने नगर-निवासियों को पूजा-सामग्री लेकर नगर के बाहर की ओर जाते देखा । कुतूहलवश कुमार ने पूछा-“लोग कहाँ जा रहे हैं ?" उत्तर मिला-"नगर से बाहर कमठ नामका एक तपस्वी आया है। वह उन पंचाग्नि तप कर रहा है। सब उसकी पूजा करने के लिए जा रहे हैं।" पार्श्वकुमार भी उन लोगों के साथ हो लिये । वहाँ पहुँचने पर पार्श्वकुमार ने तपस्वी को पंचाग्नि तपस्या करते देखा। उनकी दृष्टि लकड़ियों के बीच में जलते एक बड़े सर्प पर पड़ी। पार्श्वकुमार का दिल द्रवित हो उठा और उन्होंने उस तपस्वी का ध्यान उस जलते हुए सर्प की ओर आकृष्ट किया। उनकी बात सुन कर तपस्वी बोला-"राजकुमार, आप धर्म के बारे में क्या जाने ? आप राजकुमार हैं । हाथी-घोड़े से खेलें और धर्म के विषय में अनधिकार चेष्टा न करें।" उस तपस्वी की बात सुनकर पार्श्वकुमार के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति के मन में दया न हो, वह किस प्रकार अपने को धार्मिक व्यक्ति कह सकता है। उन्होंने उस लकड़ी को आग से बाहर निकलवाया और उस अधजले सर्प को बाहर निकाल कर उसे नवकार मन्त्र दिलाया, जिसके प्रभाव से मर कर वह धरणेन्द्र नामक देव हुआ। और, अज्ञान-तप के कारण कमठ मर कर मेघमाली नामक देव हुआ। (१) (अ) कन्यकुब्जं' महोदयम् ॥ ९७३ ॥ कन्याकुब्जं गाधिपुरं कौशं' कुशस्थलं च तत् । ९७४ ॥ अभिधान चिंतामणि, (अहमदाबाद) तिर्यक्काण्ड, ४, पृष्ठ २२२ (आ) कुशस्थलं कान्यकुब्जं । अमरकोष, (व्यंकटेश्वर प्रेस) भूमिवर्ग, द्वितीयकाण्ड, श्लोक १३, पृष्ठ २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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