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________________ होता है । कुलकरों का वर्णन हम पृथक् इसी ग्रंथ में दे रहे हैं। ये 'कुलकर' अपनी दण्डनीति से समाज में व्यवस्था स्थापित करते हैं । इसी आरे में एक श्रुटितांग का तीन वर्ष और साढ़े आठ मास शेष रहता है, तो प्रथम तीर्थकर का जन्म होता है । यह प्रथम तीर्थंकर ही अपनी गृहस्थावस्था में समाज को सदसत् मार्ग बताते हैं और समाज को व्यवहार सिखाते हैं। आग जलाना, विभिन्न व्यवसाय, कला, विवाह, राजतिलक आदि की व्यवस्था इन्हीं के काल से प्रारंभ हुई। इस आरे में सभी कुलकर, एक तीर्थंकर और एक चक्रवर्ती होते हैं।' दुषम-सुषम इस चौथे आरे का भोग काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोटा-कोटी का होता है। इस काल में मनुष्य के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष होती है और उत्कृष्ट आयु' क्रोड़पूर्व का होता है। इस आरे में पृथ्वी नाना प्रकार के वृक्षों से अलंकृत होती है और खेती की प्रवृत्ति लोगों में रहती है। पूर्व वर्णित ढंग से बिना कल्पवृक्षों के, इस समय में भी सुषम-दुषम-सा भोग होता है; परन्तु उनके गुणों में बहुत कमी होती है । मनुष्य अग्नि में पकाया हुआ अन्न, घृत, दूध आदि खाने लगते हैं । वे प्रतिदिन आहार करनेवाले होते हैं। इतना ही नहीं, एक दिन में कई बार भोजन करते हैं । मनुष्य पुत्र, पौत्र, दुहितादि युक्त बड़े परिवार वाले और बड़ी ऋद्धि वाले होते हैं। उनमें मित्रों के प्रति आसक्ति होती है तथा शत्रुओं को जीतने की भावना होती है। इस काल में राजा, मंत्री, सामन्त, श्रेष्ठि, सेनापति आदि धनवान होते हैं। कितने सेवा । करते हैं और कितने वैभव वाले होते हैं। कितनों की मिथ्या दृष्टि होती है, कुछ की भद्रक और कुछ की मिश्र दृष्टि होती है । इस काल में बरसात चार प्रकार के होती है (१) पुष्करावर्त- इस प्रकार की एक वृष्टि से जमीन सुस्निग्ध, रसभावित और दस हजार वर्ष तक धान्य उपजाने वाली रहती है। (२) प्रद्युम्न-- इस वृष्टि से १ हजार वर्ष तक पृथ्वी में धान्य उपज सकता है। (१) काललोकप्रकाश पृष्ठ १७६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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