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________________ ( ११ ) प्रभास यह सुनकर कि अन्य सभी ने दीक्षा ले ली, प्रभास भगवान् के प्रति आदर प्रकट करने और उनकी वंदना करने के विचार से तीर्थंकर के पास गये । उन्हें देखकर तीर्थंकर ने उनका नाम और गोत्र उच्चारित करके उन्हें सम्बोधित किया और कहा - "तुम्हें इस सम्बन्ध में शंका है कि निर्वाण है या नहीं । तुम वेद- वाक्यों' क्या अर्थ नहीं जानते । उनका अर्थ इस प्रकार है । २ " तुम क्या मानते हो कि, जिस तरह दीप का नाश दीप का निर्वाण कहा जाता है, उसी तरह जीव का निर्वाण क्या जीव का नाश है । अनादि होने से आकाश की तरह जीव-कर्म-सम्बन्ध का विच्छेद नहीं होने से संसार का अभाव ( विनाश) कभी नहीं होगा । तुम मंडिक की तरह जीव और कार्य के सम्बन्ध का विच्छेद स्वीकार कर लो। तुम इसे भी ज्ञानक्रिया से स्वर्ण के धातु-पाषाण वियोग की तरह मान लो । तुम ऐसा मानते हो कि नारक, तिर्यक, नर, अमर-भाव ही संसार है । इन नाराकादि पर्याय से भिन्न दूसरा जीव कौन होगा ? ऐसी स्थिति में नारकादि भाव-रूप संसार के नाश होने पर, जीव के अपने स्वरूप का नाश हो जाने से, जब उसका सर्वथा विनाश ही हो जायेगा तो फिर मोक्ष किसका होगा ? १ – इस स्थल पर टीकाकार ने वेदवाक्यों का उल्लेख किया है :(अ) जरामर्यं वैतत् सर्वं यदग्निहोत्रम् (आ) सैषागुहा दुरवगाहा (इ) द्वे ब्रह्मणी परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तरं ब्रह्म २-- राग-द्वेष-मद-मोह - जन्म - जरा - रोगादि दुःख क्षयरूप विशिष्ट अवस्था को निर्वारण कहते हैं - टीकाकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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