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"घट-विषयक विज्ञान-रूप से नाश और पट-विषयक विज्ञान से उत्पाद तुल्य काल में होता है । और, चेतना-संतान से उसकी अवस्थिति होती है। इस तरह जैसे इस लोक में वर्तमान जीव को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ये तीनों स्वभावतः दिखलाये गये, उसी तरह परलोकवासी जीवों के भी ये तीनों मानने चाहिए। इस लोक में मनुष्य का नाश और सुरादिलोक में उसका उद्भव दोनों एक साथ ही होता है। जब मनुष्य मर कर सुरलोकादि में उत्पन्न होता है, तब मनुष्य-रूप इह लोक का नाश और तत्काल में ही सुरादि परलोक का उत्पाद और जीव-रूप से उसका अवस्थान होता है ! उस जीवात्वावस्था में इहलोक परलोक की विवक्षा नहीं होती। किन्तु, निष्पर्याय जीव द्रव्य मात्र ही विवक्षित होता है । अतः उत्पाद्, व्यय, ध्रौव्य स्वभावत: होने पर जीव का परलोक भाव नहीं होता।
"जो असत् है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती। यदि उसकी उत्पत्ति हो तो खरविषाए की भी उत्पत्ति होगी। जो सत् है उसका सर्वथा विनाश नहीं होता। सर्वथा विनाश होने से क्रमशः सर्वोच्छेद हो जायेगा।
"अतः जीव का मनुष्यत्वादि धर्म से विनाश और सुरत्वादि धर्म से उत्पाद होता है। इसे सर्वोच्छेद तो नहीं माना जा सकता । यदि सर्वोच्छेद मानें तो सभी व्यवहारों का विनाश हो जायेगा। __"यदि परलोक न माना जाये तो स्वर्ग की कामना से किये गये अग्निहोत्रादि और दानादि फल लोक में असम्बद्ध हो जायेंगे।"
इस प्रकार शंका समाधान हो जाने पर, उन्होंने भी अपने ३०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली।
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