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(३२०) "भूतों और इन्द्रियों से अतिरिक्त में चेतना होती है। वायुभूति के समान तुम भी यह मान लो । जातिस्मरण से, वह आत्मा द्रव्य की अपेक्षया नित्य है।
"लक्षण आदि के भिन्न-भिन्न होने से न तो वह (जीव) एक है, न सर्वागत है और न निष्क्रिय है। किन्तु, घट आदि के समान वह अनन्त है। इस बात को इन्द्रभूति के समान तुम भी मान लो।
"हे सौम्य ! यह मान लो कि इस लोक से भिन्न परलोक और उसमें सुर और नारकों का निवास है। मौर्य और आकम्पित की तरह विहित प्रमाणों से तुम भी इसे स्वीकार कर लो।
"जीव विज्ञानमय है और विज्ञान अनित्य है । अतः परलोक न होगा। यदि उसे विज्ञान से भिन्न कहें तो वह आकाश के समान अनभिज्ञ होगा। इसी कारण, वह जीव न तो कर्ता होगा और न भोक्ता होगा। इस रूप में भी परलोक सिद्ध नहीं होता। जो आकाश के समान अज्ञान और अमूर्त है, वह जीव संसरण नहीं करेगा।
चेतना की भी यदि उत्पत्ति आदि होने से घट के समान विनाश मानो तो, हे सौभ्य ! उसके अविनाशत्व में भी वही कारण होगा।
"जैसे उत्पत्तिवाला होने के कारण कुम्भ वस्तु होने से एकान्त विनाशी नहीं होता, उसी तरह यह विज्ञान भी एकान्त विनाशी नहीं है।
"रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, संस्थान, द्रव्य-शक्ति से कुम्भ बनता है। वे सब के सब प्रसूति (उत्पत्ति) व्यवच्छित (व्यय) और ध्रौव्य धर्म वाले हैं।
"इस लोक में पिंडाकार शक्ति-पर्याय के विनाश-काल में ही कुम्भकार शक्तिपर्याय रूप से पिंड उत्पन्न हो जाता है । रूपादि द्रव्य पर्याय से न तो वह उत्पन्न होता है और न विनष्ट होता है। इससे वह नित्य होगा। इसी प्रकार सभी पदार्थ उत्पाद्, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाले होते हैं । अतः एकान्ततः नित्य अथवा अनित्य किसी को भी नहीं कह सकते।
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