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(३२३) "पर, तथ्य यह है कि जिस तरह मुद्रा के नष्ट होने पर भी स्वर्ण का नाश नहीं होता, उसी प्रकार केवल नारकादि पर्यायों के नाश होने से जीवद्रव्य का नाश नहीं होता । संसार कर्मकृत है । अतः कर्म के नाश होने से संसार का नाश हो सकता है । जीवत्व तो कर्म-कृत नहीं। फिर, कर्म के नाश होने पर जीवत्व का नाश कैसे ? ___"विकार की उपलब्धि नहीं होने से, आकाश की तरह वह जीव विनाश धर्मवाला नहीं हो सकता। कुम्भ की तरह विनाशी पदार्थ के ही अवयव आदि विकार देखे जाते हैं।
"तुम यह नहीं कह सकते कि, कृतक होने से घट की तरह आत्मा भी कालान्तर-विनाशी है; क्योंकि प्रध्वंसाभाव इस लोक में कृतक होने पर भी नित्य माना जाता है।
"तुम्हारा दृष्टान्त ठीक नहीं है; क्योंकि खर-शृंग की तरह अभाव दृष्टांत नहीं हो सकता। पर, वह घट का प्रध्वंसाभाव पुद्गलमय घट-विनाश विशिष्ट भाव ही है। ___ "जिस तरह घट मात्र के विनाश होने पर, आकाश में कुछ नवीनता नहीं आती, उसी तरह पुद्गल-मात्र के विनाश होने पर जीव में कुछ नवीनता नहीं आती है । प्रत्युत जीव अपने शुद्ध रूप को प्राप्त करता है। इसलिए, एकान्तकृतक नहीं मान सकते ।
"मुक्तात्मा द्रव्य और अमूर्त होने से आकाश की तरह नित्य होता है। तुम कहोगे कि क्या आकाश की तरह आत्मा भी व्यापक हो जायेगा? इसका उत्तर यह है कि अनुमान' से व्यापकत्व का निवारण हो सकता है।
"तुमको नित्यत्व का आग्रह ही क्या ? क्योंकि, सभी वस्तुएँ उत्पत्ति, १--टीकाकार ने लिखा है यहाँ अनुमान इस रूप में हो सकता हैंत्वपर्यन्तदेहमात्रव्यापको जीवः, तत्रैव तद्गुणोपलब्धे, स्पर्शनवत्।
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