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________________ (३०१) चाहिए। क्योंकि, जीवत्व की समानता होने पर, 'यह भव्य है', और 'यह अभव्य है' का व्यवहार क्यों होता है ? "जीव और आकाश में द्रव्यत्व तुल्य होने पर भी, जिस तरह स्वभावतः भेद माना जाता है और जीव तथा अजीव में द्रव्यत्व तुल्य होने पर भी जिस तरह उनमें स्वभावतः भेद माना जाता है; उसी तरह भव्य और अभव्य में भी स्वभावत: भेद मानना चाहिए। "यदि जीवों का भव्याभव्यत्व विशेष कर्मकृत मानते हैं तो नारकादि भेद की तरह इसमें कोई भेद नहीं रहता है । लेकिन, यह बात नहीं है । जीव स्वभावतः भव्याभव्य होते हैं, कर्म से नहीं। मेरे ऐसा कहने पर तुम्हें सन्देह हो रहा है। ___ "यदि जीवत्व के समान भव्य-भाव भी स्वाभाविक हो तो वह भी जीवत्व के समान नित्य होगा। भव्य भी नित्य होगा तो मोक्ष की कोई गुंजाइश न रह जायगी। "जैसे घट का प्राग्भाव अनादि स्वभाव होता हुआ भी सांत माना जाता है, उसी प्रकार उपाय से भव्यत्व का भी अंत मान लें तो क्या दोष होगा ? ____ "(तुम ऐसा कह सकते हो कि) प्राग्भाव का उदाहरण नहीं मान सकते; क्योंकि वह तुच्छ है और जो तुच्छ होता है, वह उदाहरण के योग्य नहीं होता, जैसे खर-विषाण । पर, बात ऐसी नहीं है। कुंभ का प्रारभाव अभाव नहीं; किन्तु वह भाव-रूप ही है, केवल घटानुत्पत्ति भाव से विशिष्ट है। - "जिस तरह धान्य को निकाल देने पर कोष्ठागार शून्य होता है, उसी प्रकार यह संसार भी भव्यों से शून्य हो जायेगा, आपका यह कहना ठीक नहीं है । अनागत काल और अम्बर की तरह । "'अतीत और अनागत काल तुल्य ही हैं, अतः भव्यों का अतीत काल के साथ एक अनंत भाग संसिद्ध होता है । उसी तरह यह बात आने वाले काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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