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"बीज और अंकुर की तरह परस्पर हेतु हेतुमय-भाव होने से, हे मंडिक देह और कर्म का संतान अनादिक है ।
"ऐसा कोई देह है, जो कि भविष्य के कर्म का कारण है । और, वही अतीत कर्म का कार्य है । इसी प्रकार, कर्म भी ऐसा है, जो कि भावी देह का कारण है और वही अतीत देह का कार्य है । इस तरह अनादि संसार में कहीं विश्राम नहीं है । इसलिए देह और कर्म का सन्तान अनादि है ।
"जिस प्रकार घट का कर्ता कुंभकार है, उसी तरह कारण होने से जीव कर्म का कर्ता है और उसी प्रकार कारण होने से कर्म देह का कारण है ।
" अतीन्द्रिय होने से कर्म कारण नहीं हो सकता, यह तुम्हारा मत ठीक नहीं है; क्योंकि कार्य से वह कारण सिद्ध हो सकता है और चेतनारब्ध क्रिया रूप होने से कृषि आदि क्रिया की तरह नानादि क्रियाएँ फल वाली होती हैं । उनका जो फल है, वही कर्म होगा । अग्निभूति की तरह तुम भी इसे मान लो ।
" सन्तान अनादि होने से अनन्त भी होगा, यह बात नियत नहीं है । क्योंकि, बीज और अंकुर की अनादिता भी अंतवाली देखी जाती है ।
"बीज और अंकुर इन दोनों के बीच अन्यतर से असम्पादित कार्य ही जब विहत होता है, तो उन दोनों की सन्तान भी विहत होगी । यही स्थिति मुर्गी और अंडे की भी जाननी चाहिए। जैसे अनादि संतानमान भी सोनापत्थर संयोग उपाय के द्वारा नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जीव और कर्म का संयोग भी तप-संयम आदि उपायों के द्वारा नष्ट हो जाता है ।
"तो क्या जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होता हुआ जीव और नभ के सम्बन्ध के अनुसार अनन्त है ? या वह स्वर्ण और पत्थर के संयोग के अनुरूप सान्त है ? इसका उत्तर यह है कि दोनों रूपों का सम्बन्ध विरुद्ध नहीं है । अनादि- अनन्त रूप जो पहला है, वह अभव्यों में होता है और स्वर्ण और पत्थर की तरह जो अनादि और सान्त है, वह भव्यों का जानना
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