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________________ / 1 (३०२) के साथ भी उतनी ही युक्त है । इससे भी सभी भव्यों का समुच्छेद युक्त नहीं होगा । यह किस प्रकार सिद्ध होगा ? भव्यों का अनन्तत्व अथवा अनंत भाग कैसे मुक्त होगा ?' यह तुम्हारा मत ठीक नहीं है । हे मंडिक ! मेरा वचन होने से कालादि की तरह तुम इनको भी स्वीकार कर लो । "ज्ञायक मध्यस्थ के वचन के समान और अतिरिक्त वचनों के समान मेरे वचन से, मेरी सर्वज्ञता आदि से तुम इसे सत्य मान लो । अगर तुम पूछो कि मैं 'सर्वज्ञ' कैसे हूँ, तो इसका उत्तर यह है कि मैं सब की शंकाओं का निवारण करता हूँ । दृष्टांत के अभाव होने पर, जिसको जो संशय हो, वह मुझसे पूछ सकता है । "तुम पूछ सकते हो कि, भव्य होने पर भी कितने जीव ऐसे हैं, जो समस्त काल में भी मोक्ष प्राप्त नहीं करते। उन्हें अभव्य कहा जाये अथवा भव्य ? " इसका उत्तर यह है कि भव्य को मोक्षगमन योग्य कहा जाता है; परन्तु योग्यत्व से सभी भव्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते, जैसे स्वर्ण, मरिण, पाषाण, चन्दन, काष्ठादि दलिक (अवयव) प्रतिभा योग्य हैं; पर उनके सभी खण्डों से प्रतिमा नहीं बनती; किन्तु जिसमें प्रतिमा बनने योग्य सामग्री होती है, उसी से वह बनायी जाती है । " जैसे कि पत्थर और सोना का योग, वियोग के योग्य होने पर भी उनमें सब का पृथक्करण नहीं होता है; केवल उनका होता है, जिनकी सम्प्राप्ति होती है और मैं इतनी दृढ़ता के साथ कहता हूँ कि वियोग सामग्री की प्राप्ति वियोग योग्य स्वर्ण - पाषाएा का ही होता है, दूसरे का नहीं । उसी तरह सर्वकर्म क्षयरूप मोक्ष नियमतः भव्यों को ही होता है । अन्य अभव्यों को नहीं । इस रूप में भव्याभव्य की व्यवस्था हो सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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