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(२७७) सकता, उसी प्रकार जिन पदार्थो के संयोग से मद्य बनता है, उन पदार्थों में भी पृथक रूप से मद का पूर्ण अभाव नहीं रहता । मद्य के अंगों में कुछ-नकुछ ऐसा अंश होता है जो भ्रमि, प्राणि, वृतृष्णता आदि उत्पन्न करने में समर्थ होता है । अतः भूतों में जब पृथक-पृथक चेतना होगी, तभी उनके संयोग से चेतना उत्पन्न हो सकती है। - "यदि निर्माता-पदार्थों में नशा लाने की प्रवृत्ति का सदा अभाव हो तो फिर उसे मद-निर्माता पदार्थ माना ही क्यों जायेगा ? और, उनके संयोग के सम्बन्ध में कोई नियम ही क्यों बनेगा ? क्योंकि, यदि मद्य के अभाव वाली वस्तुओं के संयोग से मद्य तैयार होने लगे, तो अन्य पदार्थों के संयोग से मद्य तैयार किया जाने लगेगा। __"समुदाय में चैतन्य दिखने से, प्रत्येक भूत में भी पृथक-पृथक रूप में चेतना माननी चाहिए। यह बात ठीक वैसी है, जैसे मद्यांग में मद । अतः, तुम्हारा यह हेतु असिद्ध है।
"हे गौतम् ! यह प्रत्यक्ष विरोध है । भूतसमुदाय के अतिरिक्त जीव को सिद्ध करने वाले अनुमान के होने से, तुम ऐसा मत मानों। तुम जो कहते हो कि प्रत्येक में चेतना है, यह परस्पर-विरोध है ।
भूतेन्द्रियों से प्राप्त अर्थ का अनुसरण करने से, भूतेन्द्रियों से भिन्न किसी का धर्म चेतना है, ऐसा मानना ही चाहिए। यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे एक आदमी पाँच खिड़कियों से दृष्य देखता है और फिर उसे अपने मस्तिष्क में स्मरण करता है। ___"इन्द्रियों के विनाश हो जाने पर भी, ज्ञान होता है और कभी इन्द्रियव्यापार के रहने पर भी ज्ञान नहीं प्राप्त होता । अतः, इन्द्रियों से भिन्न किसी वस्तु की सिद्धि होती है। यह वैसे ही है, जैसे पाँच खिड़कियों से दृश्य देखने वाला इन्द्रियों से भिन्न माना जाता है।
"जित तरह एक खिड़की से घटादि वस्तु को प्राप्त कर, दूसरी खिड़की से उसको ग्रहण करनेवाला व्यक्ति उन दोनों से भिन्न है, उसी तरह नेत्र से
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