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________________ वायुभूति यह सुनकर कि इन्द्रभूति और अग्निभूति साधु हो गये, तृतीय गणधर वायुभूति तीर्थंकर के निकट गये । उन्हें विचार हुआ कि जिस भगवान् महावीर को इन्द्रभूति और अग्निभूति ने गुरु मान लिया है और तीनों लोक जिनकी वंदना करता है, उनके सम्मुख जाकर वन्दना करने से मेरे समस्त पाप धुल जायेंगे और उनकी उपासना करके मैं अपनी समस्त शंकाओं का निवारण करा लूंगा। ऐसा विचार करके वायुभूति जब भगवान के पास गये तो भगवान् ने उन्हें देखते ही उनके गोत्र के सहित उनका नाम लेकर सम्बोधित किया और बोले-"तुम्हें शंका है कि जो जीव है, वही शरीर है । पर, तुम मुझसे कुछ पूछ नहीं रहे हो। तथ्य यह है कि तुम वेदवाक्य का अर्थ नहीं जानते । उनका यह अर्थ है । - "तुम्हारा यह विचार है कि वसुधा आदि भूत-समुदाय से चेतना उत्पन्न होती है। तुम समझते हो कि जैसे पृथक-पृथक वस्तु में मादकता न होने पर भी उनके समुदाय से मादकता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार जीव भी उत्पन्न होता है। जैसे पृथक-पृथक वस्तु में मादकता न होने पर भी उनके योग से मद्य तैयार होता है, और एक निश्चित् अवधि के बाद गायब हो जाता है, उसी प्रकार पृथक-पृथक भूतों में चैतन्य न रहने पर भी, भूतों के समुदाय से चैतन्य उत्पन्न होता है और कालान्तर में विनष्ट हो जाता है। _ "उन वस्तुओं के संयोग से चेतना नहीं उत्पन्न हो सकती, जिसमें पृथक-पृथक रूप में चेतना न हो। उदाहरण के लिए कहें कि जैसे बालू के पृथक-पृथक कणों में तेल के अभाव के कारण बालू से तेल नहीं निकल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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