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________________ (२७५) " हे गौतम ! यदि कर्म को ही अस्वीकार कर दिया जाये तो स्वर्ग की कामना से किये गये अग्निहोत्र आदि तथा वेदविहित दानादि फल का कोई उपयोग नहीं है । "कर्म को अस्वीकार करने पर, तुम शुद्ध जीव और ईश्वर को शरीरादि का कर्ता मानते हो । पर, यह बात नहीं हो सकती । निश्चेष्ट और अमूर्त होने उपकरण आदि के न होने से यह बात देह के आरम्भ के संबंध में ईश्वर के साथ भी लागू होगी । ईश्वर को शरीरवाला कहेंगे या अशरीरी । यदि अशरीरी मानें तो उपकरणरहित होने से वह जगत् का कर्ता न होगा । यदि शरीरवान् मानते हैं तो ईश्वर के शरीर बनने में भी यह बात लागू हो सकती है; क्योंकि बिना कर्म के उनके शरीर की भी रचना नहीं हो सकती । यदि कहें कि उनके शरीर को कोई अन्य बनाता है तो फिर प्रश्न होगा कि उसके शरीर को कौन बनाता है। इस प्रकार अनावस्थाहो जायेगी । "हे गौतम ! वेदवाक्य 'विज्ञानघन' आदि के आधार पर यदि तुम्हारा विचार है कि स्वभावत: सब कुछ होता है तो तुम्हारे इस विचार से बहुतसे दोष उत्पन्न हो जायेंगे । इस प्रकार भगवान् महावीर ने जब अग्निभूति की शंका का निवारण कर दिया तो अग्निभूति ने अपने पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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