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________________ (२७८) घटादि-वस्तु को प्राप्त कर हाथ आदि से उस वस्तु को ग्रहण करनेवाला जीव, नेत्र और हाथ दोनों से भिन्न है, यह बात सिद्ध है । "सभी इन्द्रियों से प्राप्त वस्तुओं का स्मरण करने वाली कोई वस्तु, इन इन्द्रियों से भिन्न है । यह बात उसी प्रकार है, जैसे पाँच व्यक्ति हों, उन्हें पाँच विज्ञान हों और छठाँ व्यक्ति हो, जो पाँचों के विज्ञान को जानता हो । "युवा - ज्ञान से पूर्व जैसे बाल ज्ञान होता है, उसी प्रकार बाल-विज्ञान विज्ञान्तरपूर्वक है । वह ज्ञान शरीर से अलग है; क्योंकि उस शरीर के न रहने पर भी उस ज्ञान का स्थायित्व है । "बालक की पहली इच्छा माँ के स्तनपान की होती है । वह वस्तु के भोजन की इच्छापूर्वक ठीक वैसी है, जैसी अभी की अभिलाषा । यह अभिलाषा शरीर से भिन्न है | " यौवन का शरीर जैसे बचपन के शरीरपूर्वक होता है, उसी प्रकार बचपन का शरीर भी शरीरान्तरपूर्वक होगा; क्योंकि दोनों में इंद्रियादि हैं । और वह देह जिसका है, वह देही ( आत्मा ) है | " बालक के सुख-दुःख के पूर्व अन्य सुख - दुःख की अवस्थिति हैअनुभवात्म होने से । इस सुख-दुःख का अनुभव करनेवाला जीव ही है । " हे गौतम, बीज और अंकुर का परस्पर कार्य-कारण सम्बंध होने से बीज और अंकुर का संतान जिस तरह अनादि है, उसी तरह परस्पर कार्यकारण भाव होने से शरीर और कर्म का संतान भी अनादि है । "कार्य-कारण भाव होने से, कर्म और शरीर के अतिरिक्त कर्म और शरीर का कर्ता कोई-न-कोई मानना ही चाहिए। जिस तरह दंड और घट में कार्य-कारण भाव होने से दोनों से, अतिरिक्त एक कर्त्ता कुलाल माना जाता है । "बौद्ध-सैद्धांतिक के अनुसार, इस जगत में सब कुछ क्षणिक है । इसलिए विरोधी कह सकता है कि, शरीर के साथ जीव भी नष्ट हो जाता है । अतः, जीव शरीर से भिन्न है, यह सिद्ध करना निरर्थक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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