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(२६६) वह ज्योति आत्मज्योति है। वह आत्म ज्योति वाला पुरुष ही आत्मा है। __"वह विज्ञानघन भूतधर्म नहीं होता है; क्योंकि घटादिभूत के अभाव में वह होता है । यह भावदशा में भी नहीं होता है, जिस तरह घट के रहने पर या न होने से पर उत्पन्न नहीं होता है। इसलिए 'पट' को 'घट' का धर्म नहीं मानना चाहिए।
"इन वेदवाक्यों का अर्थ तुम नहीं जानते हो अथवा सभी वेदों का अर्थ तुम नहीं जानते हो। क्या इन वेद पदों का अर्थ श्रुति (शब्द) होगा, जिस तरह 'भेरी' 'पट' इत्यादि के शब्द का शब्द ही अर्थ होता है। अथवा घटादि शब्द के उच्चारण करने पर जो घटादि विषयक विज्ञान होता है, वही उसका अर्थ है, ? अथवा वस्तुभेद से ही शब्द का अर्थ है, जैसे 'घट' के उच्चारण करने 'पृथुबुध्नोदरादि' आकारवान् घट-रूप वस्तु ही बतायी जाती है-पटादि नहीं। ___"अथवा 'जाति' ही शब्दों का अर्थ है, जैसे 'गो' शब्द के उच्चारण करने पर गो-जाति मानी जाती है ।
"अथवा क्या द्रव्य ही इनका अर्थ है-जैसे दण्डी शब्द कहने पर दण्ड वाला द्रव्य माना जाता है।
"अथवा क्या गुण ही शब्दों का अर्थ है---जैसे शुक्ल कहने पर शुक्लत्व गुण ससझा जाता है।
"अथवा क्रिया ही इनका अर्थ है-जैसे 'धावति' कहने पर दौड़ने की क्रिया समझी जाती है। _ "यह तुम्हारा संशय ही अयुक्त है; क्योंकि किसी वस्तु का धर्म 'अयमेव नैव वा अयं' (यही है अथवा यह नहीं है) इस तरह से नहीं जाना जाता है; क्योंकि वाच्य-वाचक आदि सभी वस्तु 'स्व', 'पर' पर्यायों से सामान्य विवक्षया से निश्चय ही सर्वात्मक है। और, केवल 'स्व' पर्याय की अपेक्षा से सभी वस्तुएँ सब से भिन्न और असर्वमय हैं। इससे पदार्थ विवेक्षा के द्वारा सामान्य तथा विशेष रूपोंवाला होता है। निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि ऐसा ही है' अथवा 'ऐसा नहीं है', क्योंकि वस्तु का स्वभाव पर्याय की अपेक्षा से नाना प्रकार का होता है।" ___जर-मरण-रहित जिनेश्वर के द्वारा संशय दूर कर दिये जाने पर इन्द्रभूति ने ५०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली।
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