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अग्निभूति ____ इन्द्रभूति की दीक्षा का समाचार सुनकर, इन्द्रभूति के भाई अग्निभूति को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सोचा कि, मैं स्वयं चल कर अब उस साधु को पराजित करूँगा और इन्द्रभूति को वापस लाऊँगा। उन्हें विचार हुआ कि, इन्द्रभूति छल से पराजित किये गये हैं। सम्भवतः वह साधु मायेन्द्रजाल जानने वाला है । क्या होता है, यह तो मेरे चलने पर ही निश्चित होगा। यदि वह साधु मेरे एक भी पक्षान्तर (पक्ष-विशेष) को जानने वाले होंगे, और उत्तर देकर मुझे संतुष्ट कर देंगे तो मैं भी उनका शिष्य हो जाऊँगा। - ऐसा विचार करके अग्निभूति तीर्थंकर के पास गये। उनको देखते ही भगवान् ने उनके नाम और गोत्र के साथ उन्हें सम्बोधित किया और बोले -'कर्म है, या नहीं तुम्हें इस बात पर शङ्का है । ( मिथ्यात्व के वश में जो कार्य किया जाता है और ज्ञानावरण ढंग का जो काम है, उनका अस्तित्व है या नहीं तुम्हें इस सम्बन्ध में शंका है । ) तुम वेद-वाक्यों का सही अर्थ नहीं जानते।
तुम्हारा विचार है कि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से 'कर्म' का होना सिद्ध नहीं होता है । अतः, तुम उसे ज्ञान-गोचरातीत (ज्ञान की सीमा से परे) मानते हो। लेकिन, सुख-दुःखादि के अनुभूति-रूप फल ही कर्म के अनुमान में साधन है । तुम कहोगे कि, कर्म यदि आपको प्रत्यक्ष है तो मुझे भी प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता। पर, तुम्हारा यह कहना ठीक नहीं है। ऐसा नियम नहीं है कि जो एक को प्रत्यक्ष हो, वह दूसरे को भी प्रत्यक्ष हो । सिंह, शस्त्र आदि प्रत्यक्ष तो है; पर वे भी सब को प्रत्यक्ष नहीं होते।
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