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(२६४) है और अनित्यादि-स्वभाव भी हैं । अत: जीव भी मूर्तिमान, संघात-रूप और अनित्यादि स्वभाव वाला ही सिद्ध होगा-ऐसा तुम्हारा मत ठीक नहीं माना जा सकता । संसारी जीव के अष्ट कर्म पुद्गल संघात युक्त सशरीर कथंचित् मूर्तिमान् मानने में कोई दोष नहीं है।
"हे सौम्य ! संशय होने से स्थाणु-पुरुष की तरह तुम्हारा जीव भी है ही। गौतम ! जो संदिग्ध है, वह उस स्थल पर अथवा कहीं अन्यत्र निश्चित रूप से रहता ही है।
तुम कहोगे कि, इस तरह गधे में भी सींग होनी चाहिए। पर, यह नियम नहीं है कि जिसमें सन्देह हो, उसी में वह वस्तु होना ही चाहिए। खर में न होने पर भी अन्यत्र सींग होती ही है। विपरीत ज्ञान करने पर इसी प्रकार समझना चाहिए।
"अजीव का विपक्ष (आत्मा) है ही; क्योंकि प्रतिषेध होने से जैसे कि अघट का विपक्ष होने से घट माना ही जाता है । जिस प्रकार (घट नास्ति) 'घट नहीं है' यह शब्द घट के अस्तित्व का साधक होता है, उसी प्रकार 'अजीव' शब्द जीवास्तित्व का साधक होगा। ___ " असत् वस्तु का निषेध नहीं होता है, यह बात सिद्ध है; क्योंकि संयोग आदि का प्रतिबंध किया जाता है। जैसे कि जब हम कहते हैं कि 'घर पर देवदत्त नहीं है' तो यहाँ 'घर' और 'देवदत्त' के रहने पर भी केवल संयोग का प्रतिषेध होता है । संयोग आदि [चार–संयोग, समवाय, सामान्य विशेष .] और जगह में सिद्ध ही है।
"घटाभिधान की तरह शुद्ध होने से, 'जीव' यह पद भी सार्थक हैं जिस अर्थ से यह जीव-पद सदर्थ है, वह अर्थ आत्मा ही है, ऐसा विचार हो सकता है।
''यदि कहें कि 'जीव-पद' का अर्थ देह ही है, अन्य कुछ नहीं और इस प्रकार देह ही जीव सिद्ध हो सकता है' तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि जीव और देह इन दोनों के पर्याय एक नहीं है। जहाँ पर पर्यायवचन-भेद
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