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" जहाँ पर लिंग ( हेतु ) के साथ लिंगी ( साध्य ) पहले नहीं गृहीत हुआ है, वहाँ उस 'लिंग' से 'लिंगी' का उसी प्रकार ग्रहण नहीं होता, जैसे शशक से शृंग का ग्रहण नहीं होता । इसलिए वह जीव लिंग से अनुमेय नहीं है ।
" आपका यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि लिंग के साथ देखा गया ग्रह( देवयोनि विशेष ) शरीर में हँसना, गाना, रोना इत्यादि विकृत ग्रह-लिंगदर्शन से जिस प्रकार ग्रह का अनुमान किया जाता है, उसी तरह कार्य - दर्शन से ऐसा माना जा सकता है कि शरीर में आत्मा है ।
" शरीर का एक नियत आकार है । अतः शरीर का भी कोई विधाता अवश्य है । जिस प्रकार चक्र, चीवर, मिट्टी, सूत्र आदि का अधिष्ठाता कुम्हार है, उसी प्रकार इन्द्रियों का भी अधिष्ठाता कोई है । जो इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, वही आत्मा है ।
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"इन्द्रिय और विषयों का परस्पर आदानादेय-भाव- सम्बंध होने से एक आदाता ( ग्रहणकर्त्ता ) अवश्य सिद्ध होता है । लोक में जिस तरह संदशक (संडसी) और लोह इन दोनों का आदानादेय भाव सम्बन्ध होने पर, आदाता कर्मार ( लुहार ) अवश्य ही देखा जाता है ।
" देहादि का एक भोक्ता अवश्य होना चाहिए; क्योंकि देहादि भोग्य है । जो-जो भोग्य होता है, उसका कोई-न-कोई भोक्ता अवश्य होता है । ( जैसे अन्नादि का भोक्ता मनुष्य है ) जिसका भोक्ता नहीं होता, वह भोग्य नहीं कहलाता, जैसे शश- श्रृंग । जो संघातरूप ( समुदाय-रूप ) होते हैं, उनका एक स्वामी अवश्य होता है, जैसे गृह का गृहपति । देहादि भी संघात- रूप हैं । अतः इनका भी स्वामी कोई-न-कोई अवश्य होगा । जिसका स्वामी नहीं होता, वह संघात - रूप नहीं होता, जैसे कि गगन - कुसुम । जो देहादि का स्वामी है, वही आत्मा है ।
"देहेन्द्रियादि का कर्ता, अधिष्ठाता, आदाता, भोक्ता तथा अर्थी जिसे मैंने अभी बतलाया है, वही जीव है । साध्य - विरुद्ध के साधक होने से ये हेतु विरुद्ध हैं | घट आदि के कर्तादि-रूप कुलाल आदि मूर्तिमान हैं, संघात - रूप
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