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(२६२)
घट के समान ही प्रत्यक्ष है । तुम जानते हो, गुण मात्र के ग्रहण से गुरणवान् घट भी प्रत्यक्ष है |
"गुणिन्' गुएा के साथ अन्य है या अनन्य है ? यदि वह ( गुरण के साथ ) अनन्य है, तो गुण मात्र के ग्रहरण होने से, गुणी जीव भी साक्षात् ग्राह्य हो जाता है । और, यदि गुणिन् गुरण से अन्य है, तो गुणिन् ( गुणवान् ) घटादि भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । तो फिर गुएामात्र के ग्रहरण होने पर, जीव के सम्बन्ध में तुम्हारा यह विचार ही क्यों है ?
"यदि ऐसा मानते हो कि गुणिनु है तो अवश्य; वह शरीर आदि से भिन्न नहीं है । ज्ञानादि गुण भी शरीर के होंगे और गुणों का गुरणी देह ही युक्त होगा ।
"पर, ज्ञानादि शरीर का गुरण नहीं है; क्योंकि शरीर घट के समान मूर्त और चाक्षुष ( देखे जाने योग्य ) है । गुण द्रव्यरहित नहीं हो सकता । ज्ञानादि गुण जिसके हैं, वही देह से अतिरिक्त जीव है ।
अतः
" इस तरह जीव तुम्हें आंशिक रूप में और मुझे पूर्ण रूप में प्रत्यक्ष है । मेरा ज्ञान अहित है । इसलिए विज्ञान की तरह तुम जीव को स्वीकार कर लो ।
"इसी तरह अनुमान से तुम यह भी मानों कि, दूसरे के देह में भी जीव है । जिस प्रकार अपनी देह में आत्मा को मानते हो, उसी प्रकार अनुवृत्ति और निवृत्ति से दूसरे की देह में भी विज्ञानमय आत्मा को स्वीकार करो । क्योंकि, इष्ट और अनिष्ट में प्रवृत्ति और निवृत्ति होने से दूसरे के शरीर में भी जीव है— ठीक उसी प्रकार जैसे अपने शरीर में जहाँ इष्टअनिष्ट में प्रवृत्ति निवृत्ति देखी जाती है, वह सात्मक होता है, जैसे कि अपना शरीर । जब प्रवृत्ति और निवृत्ति पर शरीर में भी देखी जाती है तब पर शरीर भी आत्मा से युक्त होगा । आत्मा के न रहने पर इष्टानिष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती - जैसे कि घट में प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं है ।
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