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होता है, वहाँ उन दोनों में भेद देखा जाता है, जिस तरह घट और आकाश में (यहाँ 'घट', 'कुट', 'कुम्भ', 'कलश' आदि घट के पर्याय हैं और 'नभ', 'व्योम', 'अंतरिक्ष', 'आकाश' ये सब आकाश के पर्याय देखे जाते है । अतः घट और आकाश भिन्न माने जाते हैं । उसी प्रकार जीव और देह पर्याय भी भिन्न-भिन्न है | जैसे कि, 'जीव' के 'जन्तु', 'असुमान्', 'प्राणी', 'सत्व', 'मूल' इत्यादि और शरीर के 'शरीर', 'बपुः' 'काम', 'देह', 'कलेवर' इत्यादि ) पर्याय- वचन के भेद रहने पर भी यदि वस्तु को एक मानें तो सब वस्तुएँ एक ही हो जायेंगी ।
"जीव ज्ञानादि गुण वाला बताया गया है, देह नहीं ।
" ' जीवोऽस्ति' ( जीव है) यह बात मेरा वचन होने से ( आपके संशयविषय अन्य अवशेष वचन की तरह ) सिद्ध है । जो सत्य नहीं होता है, वह मेरा वचन ही नहीं होता है, जैसे कूट साक्षि- वचन । ' जीवोऽस्ति' यह वचन सर्वज्ञ-वचन होने से सिद्ध है-ठीक उसी प्रकार जैसे तुम्हारे मत से अभिमत सर्वज्ञ का वचन तुम सत्य मानते हो ।
"मेरा सभी वचन दोष-रहित है; क्योंकि मुझ में भय, राग, द्वेष, मोह सबका अभाव है । भयादि रहित जो वचन होता है, वह सत्य देखा गया है - जिस प्रकार भय रहित और पूछने वाले के प्रति रागद्वेष-रहित ऐसे मार्ग जानने वाले का मार्गोपदेश-वचन सत्य और दोष रहित होता है ।
" तुम सोचते होगे कि मैं सर्वज्ञ कैसे हूँ ? इसका कारण यह हैं कि मैं समस्त शंकाएँ मिटा सकता हूँ। जो तुम न जानते हो, पूछो, जिससे हमारी सर्वज्ञता का विश्वास हो जाये ।
" हे गौतम ! इस तरह जीव को समझो | उपयोग जिसका हेतु है और जो सभी प्रमाणों से संसिद्ध है । संसार से इतर, स्थावर और त्रसादि भेद वाले जीव को तुम समझो । '
१ – इसे स्ष्ट करते हुए टीकाकारने लिखा है - वेदान्तिनु कह सकते हैं कि आत्मा सर्वत्र एक ही है; अतः उसके बहुत से भेद नहीं करने चाहिए
और कहेगा :
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