________________
छट्ट
अट्ठम
पारणा के दिन
दीक्षा का दिन
(२५२)
२२६
१२
३४९
१
इस १२ वर्ष ६ मास १५ दिन की तपश्चर्या में, भगवान् ने केवल ३५० दिन (पार के दिन ) भोजन किया और शेष दिन भगवान् ने निर्जल उपवास किये ।
Jain Education International
केवल - ज्ञान
जब भगवान् की तपस्या का १३ - वाँ वर्ष चल रहा था तो मध्यम पावा के उद्यान से विहार करते हुए, भगवान् जंभियग्राम पधारे । यहाँ ग्रीष्म काल के दूसरे महीने में, चौथे पक्ष में, वैशाख शुक्ल १० के दिन, पूर्व दिशा की ओर छाया जाने पर, पिछली पोरसी के समय (चौथे प्रहर में ), सुव्रत ( रविवार) नामक दिन में, विजय नामक मुहूर्त में, वालुया ( ऋजुबालुका) नामक नदी के उत्तर चैत्य सेन बहुत निकट और न बहुत दूर, श्यामक नाम के कौटुम्बिक के खेत में शाल वृक्ष के नीचे, गोदोहिका आसन (जैसे बैठकर गाय दुही जाती है, वह आसन) में बैठे हुए, आतापना लेते हुए, छट्ट की निर्जला तपस्या करते हुए, चन्द्रमा के साथ उत्तरा फाल्गुनी का योग आ जाने पर, ध्यानान्तर में वर्तमान (अर्थात् शुक्ल ध्यान के चार भेदों - १ पृथकत्व वितर्क वाला सवि
जंभिय ग्राम के बाहर उज्जुतट पर एक जीर्ण-शीर्ण
- आवश्यक चूरिंग, प्रथम भाग, पत्र ३२२
२ - आवश्यक नियुक्ति (पृष्ठ १०० गाथा ६९) में 'वियावत्त' शब्द आया है । इस पर टीका करते हुए हरिभद्र सूरि ने लिखा है ( पत्र २२७ - २) - 'विया - वत्तस्य चेइयस्स अदूरसामंते वियावत्तं नाम अव्यक्तमित्यर्थः भिन्नपडियं अपाडगं' इस पर टिप्पणि ( पत्र २८ - १ ) में लिखा है - 'वेयावत्तं' चैत्यमिति कोऽर्थ इत्याह-- 'अव्यक्त' मिति जीर्णं पतितप्रायमनिर्द्धारितदेवताविशेषाश्रयभूतमित्यर्थः ।'
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org