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(२५३) चार, २ एकत्व वितर्क वाला अविचार, ३ सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति ४ उच्छिन्न क्रिया अप्रतिपात के) प्रथम दो भेदों वाले ध्यान को ध्याते हुए, प्रथम दो श्रेणियों को पार करके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिकर्मों के क्षय हो जाने पर, भगवान् को केवल ज्ञान और केवलदर्शन हुए।
इस प्रकार केवल-ज्ञान उत्पन्न होने पर, श्रमण भगवान महावीर प्रभु अर्हन् हुए अर्थात् अशोक वृक्षादि प्रातिहार्य से पूजने योग्य हुए। राग-द्वेष को जीतनेवाले जिन हुए सर्वज्ञ और सर्वदर्शी केवली हुए।
ऐसा नियम है कि जहाँ केवल-ज्ञान हो, वहाँ तीर्थंकर एक मुहूर्त तक ठहरते हैं । इस विचार से भगवान् महावीर वहीं एक मुहूर्त तक ठहरे रहे ।'
जब भगवान् महावीर को केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ, तो इन्द्र का आसन प्रकम्पित हुआ। महावीर स्वामी को केवल-ज्ञान हो गया, यह जानकर समस्त देवता अत्यंत, हर्षित हो, वहाँ आये और आनन्द में कोई कूदकर, कोई नाचकर, कोई हँसकर, कोई गाकर, कोई सिंह की तरह ग रजकर, कोई नाना प्रकार के नाद कर, उत्सव मनाने लगे और उनकी स्तुति करने लगे। देवताओं ने वहाँ समोसरण की रचना की। यह जानकर कि, यहाँ उपस्थित लोगों में कोई सर्व विरति के योग्य नहीं है, महावीर स्वामी ने एक क्षण तक देशना दिया।
भगवान् की देशना का उन देवताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, यह बात जैन-साहित्य में आश्चर्य-रूप में गिनी गयी है। 3 १-आवश्यक टीका मलयगिरि कृत, प्रथम भाग, पत्र ३००-१ । २-नेमिचन्द्र-रचित महावीर-चरियं पत्र ५६, गाथा ८६ ।
गुणचन्द्र-रचित-महावीर-चरियं गाथा ५, पत्र २५१-१ ।
त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १०, पत्र ६४। ३-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ६४ ।
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