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________________ (२२८) व्रजगाम - गोकुल में उस दिन पर्व होने से, सब के घर में खीर पकी थी । भगवान् भिक्षा के लिए गये । संगमक वहाँ भी पहुँच गया और आहार को अशुद्ध करने लगा । भगवान् संगमक की कार्रवाई समझ गये और नगर छोड़ कर बाहर चले गये । संगमक छः महीने से भगवान् को निरंतर कष्ट दे रहा था और विविध उपायों से सता रहा था । भगवान् को ध्यान से चलित करने के लिए, उसने बहुत से उपाय किये । लेकिन, वह सफल नहीं हो सका । इन सब कृत्यों के बाद संगमक को यह अनुभव हुआ कि भगवान् महावीर का मनोबल पहले से ढ़तर ही होता जा रहा है, तब उसने अपनी हार स्वीकार कर ली और भगवान् के पास जाकर बोला – “इन्द्र ने आपकी जो स्तुति की थी, वह पूर्णतः सत्य है । आप सत्य प्रतिज्ञ हैं और मैं अपनी प्रतिज्ञा से भ्रष्ट हुआ हूँ । अब मैं भविष्य में किसी प्रकार की बाधा न उपस्थित करूँगा ।" संगमक के इस वचन को सुनकर भगवान् महावीर ने कहा - " संगमक ! मैं किसी के वचन की अपेक्षा नहीं रखता हूँ । मैं तो अपनी इच्छा के अनुसार ही विचरता है।" भगवान् के अपूर्व समभाव और क्षमाशीलता से पराभूत होकर संगमक वहाँ से चला गया । दूसरे दिन भगवान् उसी व्रजगाम में गये । पूरे छः महीने के बाद आपने वत्सपालक - एक वृद्धा के हाथ से खीर से पारणा किया । संगमक जब देवलोक में गया तब इन्द्र उसके ऊपर बड़ा क्रुद्ध हुआ । उसकी भर्त्सना करते हुए उसको देवलोक से निकाल दिया । संगमक अपनी पत्नी के साथ जाकर मेरु पर्वत के शिखर पर रहने लगा । व्रजगाम से भगवान् ने श्रावस्ती की ओर विहार किया । अलंभिया, सेयविया आदि प्रसिद्ध नगरों में होते हुए आप श्रावस्ती पहुँचे और नगर के उद्यान में ध्यानारूढ़ हो गये । श्रावस्ती से कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, मिथिला आदि नगरों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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