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(२०५) गया, तो वहाँ उसने भगवान् को ध्यानावस्था में खड़े देखा । भगवान को देख कर उसने सोचा कि आज यह नंगा साधु मुझे अमंगल रूप दिखलायी पड़ा । उसे बड़ा कोध आया। और, इस परम मंगल को अज्ञानवश अमंगल समझ कर हाथ में हथौड़ा लेकर भगवान् को मारने दौड़ा । उसी समय इन्द्र ने अवधिज्ञान से भगवान् की चर्या जानने के विचार से देखा तो उसे सभी कुछ दिखलायी पड़" गया। वह तत्काल वहाँ आया और उसी घन को लोहार के सिर पर मार कर उसे यमलोक पहुँचा दिया। और, भगवान को नमस्कार करके इन्द्र वापस चला गया।
वैशाली से विहार कर के भगवान् ग्रामक-सन्निवेश आये। और, ग्रामक के बाहर एक उद्यान में विभेलक-यक्ष के मन्दिर में कायोत्सर्ग में खड़े हो गये । वह यक्ष सम्यक्त्वी था। उसने भक्तिपूर्वक भगवान् की स्तुति की।
ग्रामक-सन्निवेश से भगवान् शालीशीर्ष आये और बाहर उद्यान में योगारूढ़ हो गये । माघ' का महीना था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। और नंगे बदन भगवान् ध्यान में रत थे। कटपूतना नाम की एक वाणव्यंतरी देवी वहाँ आयी। भगवान को देखते ही उसका क्रोध चमक पड़ा। क्षण भर में उसने परिव्राजिका का रूप धारण कर लिया और बिखरी हुई जटाओं में जल भरकर भगवान् के ऊपर छिड़कने लगी और उनके कंधे पर चढ़ कर अपनी जटाओं से भगवान को हवा करने लगी।
पानी के छींटे भगवान् को साही के काँटे की तरह बिंधते । पर, इस भीषण और असाधारण उपसर्ग को भी भगवान ने पूर्ण स्वस्थ मन से सहन किया।
कटपूतना के उपसर्ग को धैर्यपूर्वक और क्षमापूर्वक सहन करते हुए भगवान् को लोकावधि ज्ञान उत्पन्न हुआ। उस से आप लोकवर्ती समस्त पदार्थों को हस्तामलकवत् देखने और जानने लगे । अंत में, भगवान् की सहन
१-त्रिशष्टिशलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ३, श्लोक ६१४ पत्र ४०-१ । २-आवश्यक चूरिण, पूर्वार्द्ध, पत्र २६३ ।
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