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________________ (१६३) घर लौटा और अपनी सभी वस्तुएँ दान देकर, सिर मुंडवाकर भगवान् की तलाश में चल पड़ा | भगवान् को ढूंढते ढूँढ़ते वह कोल्लाग सन्निवेश' में जा पहुँचा । वहाँ उसने लोगों के मुख से एक महामुनि की चर्चा सुनी। वह भगवान् को ढूंढने सन्निवेश के अन्दर जा रहा था कि, भगवान् उसे मार्ग में मिल गये । उसने भगवान् से पुनः शिष्य बनाने की प्रार्थना की। इस बार भगवान् ने 'अच्छा' कहकर प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके बाद से ६ चौमासे तक गोशाला उनके साथ रहा । १ - यह स्थान वैशाली के निकट स्थित कोल्लाग सन्निवेश से भिन्न स्थान है । इसके संबंध में भगवतीसूत्र पत्र १२१६-२ पर बताया गया है – “तीसे गं नालंदा बाहिरियाए अदूरसामंते एत्थ णं कोल्लाए नामं सन्निवेसे होत्या ।" अर्थात् नालंदा के निकट में कोल्लाग सन्निवेश था । तृतीय वर्षावास कोल्लाग सन्निवेश से गोशाला के साथ भगवान् ने सुवर्णखल' की ओर विहार किया। मार्ग में उनको ग्वाले मिले, जो एक हाँड़ी में खीर पका रहे थे । गोशाला ने भगवान् से कहा – “जरा ठहरिए ! इस खीर को खाकर फिर आगे चलेंगे ।" भगवान् ने उत्तर दिया- " यह खीर पकेगी ही नहीं । बीच में ही हाँडी फूट जाएगी और यह सब खीर नीचे लुढ़क जायेगी ।” १. - आवश्यक चूरिंग, प्रथम भाग, पत्र २८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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