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________________ (१८९) घूम रहा है । चलूँ उसकी सेवा करूँ। जब वह चक्रवर्ती बनेगा, तो मेरे भी भाग्य खुल जाएँगे।" अतः भगवान् के पदचिह्नों को देखता-देखता वह थूणाकसंनिवेश पहुँचा। सन्निवेश से बाहर भगवान् अशोक-वृक्ष के नीचे ध्यानावस्थित खड़े थे। उनके चरण में ही नहीं, उनके सारे शरीर में चक्रवर्ती के लक्षण थे। उनको देखकर पुष्य चिंता में पड़ गया कि चक्रवर्ती लक्षणों से युक्त यह व्यक्ति साधु बनकर जंगलों में क्यों घूम रहा है। अतः उसका विश्वास सामुद्रिक-शास्त्र पर से उठ गया और वह अपने शास्त्र को प्रवाहित करने के लिए तैयार हो गया । उस समय इन्द्र ने आकर कहा- "पुष्य, तुम्हें सही लक्षण ज्ञात नहीं है; महावीर तो अपरिमित लक्षणवाले हैं। यह उत्तम धर्म-चक्रवर्ती हैं और चारों गतियों का अन्त करनेवाले हैं। देव-देवों के भी पूज्य हैं।" तब पुष्य, भगवान् को नमस्कार करके चला गया। थूणाक-सन्निवेश से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् महावीर राजगृह' के बाहर नालंदा में ठहरे। वहाँ भगवान् एक तंतुवायशाला (बुनकर' के कारखाने) में ठहरे । भागवान् ने उसके मालिक से अनुमति लेकर बुनकरशाला के एक कोने में चातुर्मास किया। मासक्षमण (महीने भर उपवास) करके भगवान् ध्यान में स्थिर हो गये। उस समय मंख जातीय मंखली-पुत्र गोशाला' की भगवान् से भेंट हुई। वह भी चतुर्मास बिताने के विचार से वहीं ठहरा था। १-प्राकृत में इसे 'रायगिह' लिखा है । यह मगध देश की राजधानी थी। (वृहत्कल्पसूत्र सटीक, पुण्यविजय-सम्पादित, विभाग ३, पृष्ठ ६१३) । और, इसकी गणना १० प्रमुख राजधानियों में की जाती थी (स्थानांग सूत्र, भाग २, ठाणा १०, पत्र ४७७) । आजकल विहार में स्थित राजगिर नाम से प्रसिद्ध स्थान प्राचीनकाल का राजगृह है । यह रेलवे स्टेशन है और बिहारशरीफ से १५ मील दूर है। प्राचीन काल में यह स्थान बड़े व्यापारिक महत्व का था। यहाँ से सड़कें विभिन्न भागों में जाती थीं। तक्षशिला से राजगृह १६२ योजन दूर थी। यह मार्ग सावत्थी होकर जाता था (डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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