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________________ (१८३) नन्दिवर्द्धन ' के पास ले गया। नन्दिवर्द्धन ने उसे देखकर पूछा-"यह देवदूष्य आपको कहाँ मिला?" उस ब्राह्मण ने सारी कहानी कह सुनायी। इससे हर्षित हो राजा नन्दिवर्द्धन ने एक लाख दीनार देकर उसे खरीद लिया। __उत्तर वाचाला जाने के लिए दो मार्ग थे । एक कनकखल आश्रमपद के भीतर होकर जाता था । और दूसरा आश्रम के बाहर होकर आश्रम के भीतर का मार्ग सीधा था; लेकिन निर्जन और भयानक था । और, आश्रम के बाहर का मार्ग लम्बा था; पर निरापद होने के कारण वही मुख्य मार्ग था। __ भगवान् आश्रमपद के भीतर के मार्ग से आगे बढ़े । भगवान् थोड़ी ही दूर चले होंगे कि, उन्हें रास्ते में कुछ ग्वाले मिले। उन्होंने भगवान् से कहा-"देवार्य, यह मार्ग ठीक नहीं है। रास्ते में एक अति दुष्ट 'दृष्टिविष' नाम का सर्प रहता है, जो पथिकों को भस्म कर देता है। अच्छा हो, आप वापस लौट कर बाहर के मार्ग से जायें।" भगवान् महावीर ने उन लोगों की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया और और वे उसी मार्ग से आगे बढ़ कर यक्ष के देवालय के मंडप में जाकर ध्यानारूढ़ हो गये। यह सर्प पूर्व जन्म में तपस्वी साधू था। एक दिन पारने के लिए एक बाल-शिष्य को साथ में लेकर भिक्षा के लिए बस्ती में गया। रास्ते में इर्यासमिति २ पूर्वक चलने पर भी एक मण्डूकी पाँव के नीचे कुचल गयी। उस शिष्य ने उसकी आलोचना के लिए ध्यान आकृष्ट कराया। इस पर १--गुणचन्द्र-रचित महवीर चरित्रं, पत्र १५८-२ २—किसी भी जंतु को क्लेश न हो एतदर्थ सावधानतापूर्वक चलना 'इर्यासमिति' है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य-टीका सहित, भाग २ अध्याय ९, सूत्र ५. पृष्ठ १८६ । इस सम्बन्ध में दशवकालिक में आया है। पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महिंचरे वज्जेंतो बीयहरियाई पाणे य दगमट्टिया ( अ० ३, उ० १, गा०३) --अर्थात् साधु को आगे की ४ हाथ भूमि देखकर चलना चाहिए। ३-आलोचना : अभिविधिना सकलदोषाणालोचना-गुरुपुरत : प्रकाशना आलोचना-भगवती सूत्र, शतक १७ वाँ, उद्देश्य ३, पत्र १३३८-२ अभयदेव सूरी कृत टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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