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________________ द्वितीय वर्षावास प्रथम चातुर्मास अस्थिक ग्राम में समाप्त करके शरद ऋतु में (मार्गशीर्ष बदी १ के दिन) भगवान् ने वहाँ से विहार किया और मोराकसन्निवेश(१) में पधारे । वहाँ वे बाहर उद्यान में ठहरे । यहाँ पर अच्छन्दक नाम के पाखण्डी लोग थे। उनमें से एक अच्छन्दक उस गाँव में गया । वह ज्योतिष, वशीकरण आदि के द्वारा अपनी आजीविका चलाता था। भगवान् महावीर की महत्ता जान जाने के बाद लोग अच्छन्दक से मुँह मोड़ने लगे और भगवान् महावीर के पास आने लगे । एक दिन उस अच्छन्दक ने आकर भगवान से प्रार्थना की-“हे देव, आप अन्यत्र निवास कीजिये; क्योंकि आपकी महिमा तो सर्वत्र है । मैं यदि अन्यत्र जाऊँ तो मेरी आजीविका नहीं चलेगी।" ऐसी परिस्थिति में भगवान् ने वहाँ रहना उचित नहीं समझा और वहाँ से वाचाला की ओर विहार किया। वाचाला नामके दो सन्निवेश थे, एक दक्षिण-वाचाला और दूसरा उत्तरवाचाला । दोनों सन्निवेशों के बीच में सुवर्णबालुका और रूप्यवालुका नाम की दो नदियाँ बहतो थीं । भगवान् महावीर दक्षिए-वाचाला होकर उत्तरवाचाला जा रहे थे। उस समय उनके दीक्षा के समय का आधा दूष्य सुवर्णबालुका नामक नदी के किनारे कंटकों में फँस कर गिर पड़ा । भगवान् ने उसकी ओर एक दृष्टि डाली और आगे बढ़ गये। तब से ही भगवान् यावज्जीवन अचेलक रहे । २ देवदूष्य वस्त्र की ही लालच से सोम नाम का ब्राह्मण जो भगवान् के पीछे-पीछे वर्ष एक और एक मास तक घूमता रहा, उस आधे देवदूष्य को लेकर तुन्नवाय (रफूगर) के पास गया । तुन्नवाय से उसे अखंड बनवा कर वह उसको बेचने के लिए राजा १-~-आवश्यक चूर्णी, प्रथम भाग, पत्र २७५ २-आवश्यक चूरी, प्रथम भाग, पत्र २७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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