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१० उर्द के दाने
१६ माषक = १ सुवर्ण अथवा १ कप
४ कर्ष
१ पल
- कौटलीय अर्थशास्त्र (हिन्दी - अनुवाद, प्रथम भाग ) उदयवीर शास्त्री - अनूदित, पृष्ठ २२६
इस प्रकार जैन ग्रन्थों में स्वर्ण का जो माप है, वह इतर ग्रन्थों से भी पुष्ट हो जाता है । और, 'सुवर्ण' सोने का सिक्का था, इसका भी जैन - साहित्य में स्पष्ट उल्लेख है :
(१८१ )
१ सुवर्ण माषक अथवा ५ रत्ती
=
उत्तराध्ययन की नेमिचन्द्राचार्य की टीका के आठवें अध्याय ( पत्र १२५ - १ ) कपिलमुनि की कथा में 'सुवन्नसयं मग्गामि' उल्लेख से 'सुव' का सिक्का होना स्पष्ट रूपसे प्रकट है ।
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जैन आगमों में सोने के सिक्कों के लिए एक और शब्द 'हिरण' आता है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सटीक ५११२३, नायाधम्म कहा ८ आदि ग्रन्थों में इसका उल्लेख आता है । यह हिरण्ण भी स्वर्ण मुद्रा थी । आचारांग में वार्षिक दान के प्रकरण में (द्वितीय श्रुतिकंध, पत्र ३६० - १ ) 'हिरण्ण' शब्द आया है । इसके अनुवाद में रवजीभाई देवराज ने (पृष्ठ ३७ पर) 'सोनामोहर' लिखा है । यह ठीक है । मेरा मत है कि दीनार, हिरण्ण और सुवण्ण शब्द समानार्थी हैं ।
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