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________________ (१६१) इस प्रकार की वाणी कहते हुए नन्दिवर्द्धन बड़े कष्ट से साश्रु-नेत्र अपने घर वापस आये।' , उस समय भगवान महावीर ने दृढ़ संकल्प किया वारस वासाई वोसहकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा समुप्पज्जंति तं जहा-दिव्वा वा, माणुस्सा वा, तेरिच्छिया वा-ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि अहियासइस्सामि ।२ - १२ वर्ष तक जब तक मुझे केवल-ज्ञान नहीं होगा, मैं इस शरीर की सेवा-सुश्रूषा नहीं करूँगा। देव, मनुष्य या तिथंच (पशु-पक्षी) की ओर से जो कुछ भी उपसर्ग आयेंगे, मैं उन सबको समभाव से सहन करूंगा। और, मन में किंचित् मात्र उद्वेग न आने दूंगा।" यह प्रतिज्ञा करके भगवान् महावीर ने साधना-मार्ग में प्रवेश किया । आगे विहार करते ही उनको रास्ते में-उनके पिता का मित्र सोम नाम का वृद्ध ब्राह्मण मिला और प्रार्थना करने लगा___"हे स्वामिन् ! मैं जन्म से ही महादरिद्र हूँ और दूसरों के पास याचना करता हुआ गाँव-गाँव भटकता हूँ। आप जब सांवत्सरिक दान से लाखों मनुष्यों का दारिद्रय-हरण कर रहे थे, तब मैं धन की आशा से गाँव-गाँव भटक रहा था। इससे दान की सूचना मुझे नहीं मिली। और, जब मैं खाली हाथ भिक्षाटन से लौटा, तो मेरी स्त्री ने मेरी भर्त्सना करते हुए कहा-'हे निर्भाग्यशिरोमणि, जब यहाँ गृहांगण में गंगा प्रकट हुई, तब आप बाहर भटकने चले गये। अब भी आप भगवान् महावीर के पास जायें। वे आपको जरूर कुछ देंगे।' इससे यहाँ आपके पास आया हूँ।" भगवान ने कहा कि, अब तो मैं निष्कंचन साधु हो गया हूँ। फिर भी, कंधे पर रखे देवदुष्य का आधा टुकड़ा तुझे देता हूँ। ऐसा कहकर भगवान् ने आधा देवदूष्य फाड़ कर उसे १-कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, षष्ठः क्षणः, पत्र २७५ । २-आचारांग सूत्र (बम्बई) श्रुतस्कन्ध २, अध्ययन २३, पत्र ३६१-२, ३६२-१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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