SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१] प्रथम वर्षावास तीस वर्ष की अवस्था में भगवान् महावीर ने गृहत्याग किया और क्षत्रियकुण्ड से लगे हुए ज्ञातखंडवन' से आगे प्रस्थान किया। बंधुवर्ग जब तक भगवान् नजर आते रहे वे-- त्वया विना वीर ! कथं ब्रजामो ? गृहेऽधुना शून्यवनोपमाने । गोष्ठी सुखं केन सहाचरामो ? भोक्ष्यामहे केन सहाऽथ बन्धो ।।१।। सर्वेषु कार्येषु च वीर वीरे-त्यामन्त्रणादर्शनतस्तवार्य ! प्रेमप्रकर्षादभजाम हर्ष, निराश्रयाश्चाऽथ कमाश्रयामः ॥२॥ अतिप्रियं बान्धवः ! दर्शनं ते, सुधाऽञ्जनं भावि कदाऽस्मदक्ष्णोः नीरागचित्तोऽपि कदाचिदस्मान, स्मरिष्यसि प्रौढ़ गुणाभिराम ॥३॥ __ हे वीर ! अब हम आपके बिना शून्य वन के समान घर को कैसे जाएँ ? हे बंधु ! अब हमें गोष्ठी-सुख कैसे मिलेगा ? अब हम किसके साथ बैठकर भोजन करेंगे ? आर्य ! सर्व कार्यों में वीर-वीर कहकर आपके दर्शन से तथा प्रेम के प्रकर्ष से हम अत्यानंद प्राप्त करते थे; परंतु निराश्रित हुए अब हम किसका आश्रय लेंगे ? हे बान्धव ! हमारी आँखों में अमृत के अंजन के समान अति प्रिय आपका दर्शन अब हमें कब होगा? हे प्रौढ़ गुणों से शोभनेवाले ! निराग चित्त होते हुए भी क्या आप कभी हमें स्मरण करेंगे?" १-इस उद्यान का नाम 'ज्ञातखण्ड वन' पड़ने का कारण हमारी समझ में यह आता है कि, 'खण्ड' समूह को कहते हैं और यह वन 'ज्ञात' लोगों का होने से लोग इसे 'ज्ञातृ खण्ड वन' के नाम से पुकारने लगे। जिनप्रभ सूरि ने कल्पसूत्र की संदेह विषौषधि टीका में 'वन' की परिभाषा दी है-'वनान्येक- जातीय वृक्षाणि' (पत्र ७५), 'जिसमें एक ही तरह के वृक्ष होते हैं, उसको वन कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy