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________________ (१३७) देकर प्रभु का प्रतिबिम्ब बनाकर वहाँ रख दिया और भगवान को मेरु पर्वत के शिखर के ऊपर ले गये। वहाँ स्नात्राभिषेक करने को जब सब देव जल-कलश लेकर खड़े हुए तो उस समय सौधर्मेन्द्र के मन में शंका हुई कि यह बालक इतने जल का प्रवाह कैसे सहन करेगा? भगवान् ने अवधिज्ञान से इन्द्र के मन की शंका को जानकर उसके निवारण के लिए अपने बाएँ पाँव के अँगूठे से मेरु-पर्वत को जरा-सा दबाया तो पर्वत कम्पायमान हो गया । इन्द्र ने ज्ञान से इसका कारण जानना चाहा तो उसको भगवान् की अनन्तशक्ति का ज्ञान हुआ। और, उसने भगवान् से.क्षमा याचना की। तब इन्द्र और देवों ने मिलकर भगवान का जलाभिषेक किया। अभिषेक के बाद उनके अँगूठे में अमृत भरा और नंदीश्वरपर्वत पर अष्टाह्निक ( आठ दिन का) महोत्सव मनाकर और फिर अष्ट मंगल का आलेखन करके स्तुति करके भगवान को अपने माता के पास वापस रख आया। प्रातःकाल प्रियंवदा नामक दासी ने, राजा सिद्धार्थ के पास जाकर पुत्रजन्म की सूचना दी। राजा ने मुकुट छोड़कर अपने समस्त आभूषण दासी को दान में दे दिये और उसे दासीपन से मुक्त कर दिया। समाचार सुनकर सिद्धार्थ राजा ने नगर के आरक्षकों को बुलवाया और उनको आज्ञा दी-" हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही क्षत्रियकुंड के बन्दीगृह के समस्त कैदियों को मुक्त कर दो । बाजार में आज्ञा कर दो कि जिसे किसी वस्तु की आवश्यकता हो और वह खरीद न सकता हो, तो वह वस्तु उसे बिना मूल्य-लिये दी जाये । उसका मूल्य राज-कोष से दिया जायगा। नाप १-दिगम्बर ग्रन्थों में भी मेरु-कम्पन का उल्लेख है : पादांगुष्ठेन यो मेरुमनायासेन कंपयन् । लेभे नाम महावीर इति नाकालयाधिपात् ॥ -रविषेणाचार्यकृतपद्मचरितम्, पर्व २, १ लोक ७६, पृष्ठ १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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