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पाश्चात्य विद्वानों के ही अध्ययन और खोज का यह फल हुआ कि भारत में भी जन-धर्म के सम्बन्ध में और भगवान महावीर के सम्बन्ध में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में कितनी ही पुस्तकें लिखी गयीं। मैंने सहायक-ग्रन्थों की सूची में कुछ महावीर चरित्रों के नाम दे दिये हैं। ____ इतने महावीर-चरित्र के होने के बावजूद मुझे बहुत वर्षों से महावीरचरित्र लिखने की प्रबल इच्छा रही। इसका कारण यह था कि, संस्कृत और प्राकृत तो आज का जनभाषा न रही और मूल धर्म-शास्त्रों में भगवान् की जीवन कथा बिखरी पड़ी है। अतः मैं चाहता था कि हिन्दी में मैं एक ऐसा जीवन प्रस्तुत करूँ, जिसमें जहाँ एक ओर ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचन हो, वहीं शंका वाले स्थलों के समस्त प्रसंग एक स्थान पर एकत्र हों।
भगवान् के जीवन में अपनी रुचि के ही कारण, पहले मैंने भगवान के जन्मस्थान की खोज के सम्बन्ध में 'वैशाली' लिखी। फिर छद्मस्थकालीन विहार-स्थलों के सम्बन्ध में 'वीर-विहार-मीमांसा' प्रकाशित करायी। उनके गुजराती में द्वितीय संस्करण भी छपे । और, यह अब महावीर की जीवनकथा का प्रथम खंड आपके हाथ में है। यह पुस्तक कैसी बनी, यह तो पाठक ही जाने; पर मैं तो कहूँगा कि यदि आपकी एक शंका का भी समाधान इस पुस्तक से हुआ, अथवा जैन-शास्त्रों की ओर अपनी रुचि आकृष्ट करने में किसी प्रकार यह पुस्तक सहायक रही, तो मैं कहूँगा कि मेरा नगण्य परिश्रम भी पूर्ण सफल रहा।
प्रस्तुत पुस्तक को तैयार करने में हमें जिनसे सहायता मिली उनका उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है। श्री भोगीलाल लहेरचन्द की 'वसति' में रहकर निर्विघ्नतापूर्वक मुझे तीर्थंकर महावीर का यह प्रथम भाग पूरा करने का अवसर मिला । यदि स्थान की यह सुविधा मुझे न मिली होती, तो सम्भवतः मेरे जीवन में यह कार्य पूरा न हो पाता। ____ मेरे इस साहित्यिक काम में मेरे उपदेश से श्री चिमनलाल मोहनलाल झवेरी, श्री वाडीलाल मनसुखलाल पारेख तथा श्री पोपटलाल भीखाचन्द झवेरी सदैव हर तरह से मेरी सहायता करते रहे ।
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