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इतने ग्रंथ होने के बावजूद, स्वयं कृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ का नाम तक किसी ग्रंथ में नहीं आता।
इस उपेक्षा का फल यह हुआ कि, जन साधारण वर्द्धमान को भूल-सा गया । और, यद्यपि कल्पसूत्र में सब से अधिक विवरण महावीर स्वामी का ही है तथा उनके ही जीवन-चरित्र संस्कृत और प्राकृत में सब से अधिक लिखे गये तथापि स्वाध्याय की और विमुख होने से स्वयं जैन-समाज अपने अन्तिम तीर्थंकर को विस्मृत करने लगा। उनका जन्मदिन चैत्र शुक्ल १३ लोग भूल गये और पर्युषणा-पर्व में चौथे दिन के दोपहर को जब कल्पसूत्र के व्याख्यान में भगवान् की जन्म-कथा आती है, तो लोग उसी को भगवान् का जन्म दिन मानने लगे। हमारे गुरु महाराज परम श्रद्धेय आचार्य विजय धर्म सूरि ने इस काल में पहले-पहल चैत्र शुक्ल १३ को जन्मोत्सव मनाने का प्रचार काशी से प्रारम्भ किया।
जैनों के सामाजिक जीवन में जो उहापोह विगत २॥ हजार वर्षों में हुए, उससे जैन भगवान् का जन्मस्थान और निर्वाण-स्थान भी भूल गये । बौद्ध-धर्म भारतभूमि से सैकड़ों वर्षों तक विलुप्त रहा पर; उसके तीर्थ आज, भी स्पष्ट और प्रकट हैं, पर जैन जो भारत में ही बने रहे, अपने तीर्थो को ही भूल बैठे । आज भी कितनी ही गुत्थियाँ शेष है जो स्पष्ट नहीं हुई। कारण यह कि यहाँ पुरातत्त्व का संघटन ही बौद्ध-ग्रंथों के आधार पर हुआ। और, जब स्वराज्य के बाद अपनी सरकार आयी, तब उसने भी पुरानी ही लीक कायम रखी और जैन-स्थलों की खोज की ओर न तो उसने कुछ किया और न हमारे कोट्याधिपति जैन-श्रावकों ने ही।
जैन-धर्म का अच्छा और विशद वर्णन (सर यदुनाथ सरकार का अनुवाद, भाग ३, अध्याय ५, पृष्ठ १९८) मध्य काल में पहले-पहल आइनेअकबरी में अबुलफजल ने किया। उसके बाद जब पाश्चात्य आये तो उन्होंने बड़े परिश्रम से विभिन्न धर्मों के संबंध में अध्ययन प्रारम्भ किया। पहले तो उन्होंने जैन-धर्म को बौद्धों का ही अंग माना पर ज्यों ही उनकी पैठ अधिक गहरी हुई, उन्हें अपनी भूल मालूम हो गयी। वस्तुतः उन
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