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और यथा जात रूप के धारण करनेवाले जो हैं, वे निर्गन्थ निष्परिग्रह अर्थात् ममत्वरहित होते हैं। ___यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि 'निर्गथ' शब्द भी जैन-साहित्य का परिभाषिक शब्द है। प्राचीन काल में सुधर्मा स्वामी से ८-वें पाट तक 'जैन' के लिए 'निर्गन्थ ' शब्द का ही प्रयोग होता रहा है। ऐसा उल्लेख तपागच्छपट्टावलि (पं० कल्याण विजय-सम्पादित भाग १, पृष्ठ २५३ ) में भी आता है-श्री सुधर्मास्वानोऽष्टौ सूरीन् यावत् निर्गन्थाः
अशोक के शिला-लेख में भी निर्गथ शब्द आया है। निर्गठेसु पि मे कटे इवे वियापटा होहन्ति
---अशोक के धर्मलेख, पृष्ठ ३६४ मैंने अपनी पुस्तक वैशाली ( द्वितीयावृत्ति, हिन्दी ) की भूमिका में पृष्ठ सात पर इस निर्गन्थ शब्द पर विशेषरूप से विचार किया है। जिज्ञासु पाठक उसे देख सकते हैं।
बील के 'बुद्धिस्ट रेकार्ड आव द ' वेस्टर्न वर्ल्ड' (खण्ड २, पृष्ठ ६६) से स्पष्ट है कि चीनी यात्री जब वैशाली आया था, तब निगंथ वहाँ बहुत संख्या में थे । वाटर्स ने अपने ग्रन्थ ( भाग २, पृष्ठ ६३ ) पर निर्गन्थ के स्थान पर 'दिगम्बर' शब्द लिखा है । पर, यह उनकी भूल है।
वर्तमान काल में जैनों के २४ तीर्थकर हुए। जिनमें ४ ऋषभ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान इस काल में सब से अधिक विख्यात हैं। कल्पसूत्र में भी इन्हीं चार तीर्थंकरों का उल्लेख विस्तार से है और इन चार में भी सब से अधिक ख्याति पार्श्वनाथ की है। इस ख्याति की चरम सीमा इसी से आंकी जा सकती है कि साधारणतः लोग किसी भी जैन-मंदिर को को ‘पार्श्वनाथ का मंदिर' कह कर सम्बोधित कर दिया करते हैं और इस ओर ध्यान भी नहीं देते कि उस मंदिर में किसकी मूर्ति है । बौद्धग्रंथों में तो महावीर स्वामी का उल्लेख निगंठनातपुत्र के रूप में बराबर मिलता है; पर हिन्दू-ग्रन्थों में ऋषभ देव को छोड़ कर किसी भी तीर्थंकर का उल्लेख तक नहीं है । और, वर्द्धमान की क्या बात, हिन्दुओं में कृष्ण के जीवन-सम्बन्धी
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