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(९९) "निवेशो नाम यत्र सार्थ आवासितः, आदि ग्रहणेन ग्रामो वा अन्यत्र प्रस्थितः सन् यत्रान्तरावासमधिवसति यात्रीयां वा गतो लोको यत्र तिष्ठति, एष सर्वोऽपि निवेश उच्यते ।" "
(१)-'श्री महावीर-कथा' (सम्पादक : गोपालदास जीवाभाई पटेल) में पृष्ठ ७६ से ८५ के बीच डाक्टर हारनेल के आधार पर राजा सिद्धार्थ को सामान्य क्षत्रिय बताते हुये भी, उनके राजत्व को स्वीकार कर लिया है। ( देखिए पृष्ठ ७६)। इसी प्रकार विदेह, मिथिला, वैशाली और वाणिज्यग्राम को एक मान लिया है। इसका प्रतिवाद ऊपर कर दिया गया है। पृष्ठ ८१ पर 'कुल' का अर्थ 'घर' किया है, जो ठीक नहीं है। 'कुल' का अर्थ 'घराना' होगा, 'घर' नहीं। पृष्ठ २८६ पर आनन्द को ज्ञातृकुले का लिखा गया है, जो कि नितान्त भ्रामक है । आनन्द 'कौटुम्बिक' था, न कि 'ज्ञातृक' । बिना आगे-पीछे का विचार किये लिखने से ऐसी भूलों की आशंका पग-पग पर रहती है। उनके हर अनुवाद ऐसी भूलों से भरे पड़े हैं। () 'उवासगदसाओ' में प्रयुक्त
'उच्चनीचमज्झिमकुलाई' के आधार पर डाक्टर हारनेल ने वाणिज्य ग्राम के तीन विभाग करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार 'दुल्व' में आये वैशाली के वर्णन के साथ उसका मेल बैठने का प्रयत्न करके, वैशाली और वाणिज्यग्राम को एक बताने की चेष्टा की है। जैन साधुओं के लिए नियम है कि, साधु कहीं भी-ग्राम, नगर, सन्निवेश या कर्बट आदि में-भिक्षार्थ जावे, वहाँ बिना वर्ग और वर्ण-विभेद के ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा ग्रहण करे। जिस प्रकरण को डाक्टर साहब ने उद्धृत किया है, वहाँ भी भगवान ने गौतम स्वामी को भिक्षा के लिए अनुज्ञा देते हुए ऊँच, नीच और मध्यम सभी वर्गों में भिक्षा-ग्रहण का आदेश दिया है। 'दशवैकालिक सूत्र' हारिभद्रीय टीका, पत्र १६३ में साधु के लिए निर्देश है:
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