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कर्मारग्राम पहुँचे । यहीं रात्रि बितायी । अगले दिन प्रातःकाल कर्मारग्राम से विहार करके कोल्लागसन्निवेश में गये ।
डाक्टर साहब की भ्रांति का कारण सम्भवतः यह है कि, कुंडपुर में भी ज्ञातृकुल के क्षत्रिय रहते थे । और, कोल्लाग में भी ज्ञातृकुल के क्षत्रिय रहते थे । इसीलिए उन्होंने दोनों को एक समझ कर इस रूप में उनका वर्णन कर दिया ।
( ७ ) डाक्टर याकोबी का मत है कि, त्रिशला माता को जैनग्रन्थों में सर्वत्र क्षत्रियाणी-रूप में लिखा गया है— देवी - रूप में नहीं । हम ऊपर यह बता चुके हैं कि, कोशकारों और टीकाकारों नें 'क्षत्रिय' शब्द का अर्थ 'राजा' किया है । उसी के अनुसार 'क्षत्रियाणी' शब्द का अर्थ 'रानी' अथवा 'देवी' भी होगा । सामान्यतः भारतीय शब्द प्रयोग - परम्परा यह है कि, क्षत्रिय वंश से सम्बद्ध होने के कारण ही, नाम के पीछे पुनः पुनः 'क्षत्रिय' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता । परन्तु यदि क्षत्रिय वंश से सम्बन्धित होने पर जब कोई वीरोचित कार्य करता है, अथवा राजकुल से सम्बद्ध होता है, तो कहा जाता है कि, 'क्षत्रिय ही तो है । उसके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए 'क्षत्रिय' शब्द का प्रयोग किया जाता है ।
इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी कह देना चाहता हूँ कि, जैन ग्रंथों में कितने ही स्थलों पर त्रिशला माता का उल्लेख 'देवी' रूप में हुआ है । 'क्षत्रियकुंड' वाले प्रकरण में हमने पूज्यपाद - विरचित 'दशभक्ति' का एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें त्रिशला माता के लिए 'देवी' शब्द का प्रयोग किया गया है । वह पंक्ति इस प्रकार है
'देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदर्श्य विभुः'
अन्य ग्रंथों में भी माता त्रिशला के लिए 'देवी' शब्द का प्रयोग हुआ है । उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं :
(क) दधार त्रिशलादेवी मुदिता गर्भमद्भुतम ||३३॥ (ख) उपसृत्यागतो देव्याश्वावस्वापनिकां ददौ ॥ ५४ ॥ (ग) देव्या पार्श्वे च भगवत्प्रतिरूपं निधाय सः ||५५ ||
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