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'७६ प्रमाप्रमेयम्
[१.८८अनुग्राह्यस्य शिष्यस्य बोधकैर्गुरुभिः सह ।।
अनुग्रहाय कृतत्वान्न स्तां जयपराजयौ ॥ २७ ॥ [८८. गोष्ठीवादः] गोष्ठीवादे-असूयकत्वं शठता विचारो दुराग्रहः सूक्तिविमाननं च ।
पुंसाममी पश्च भवन्ति दोषा तत्वार्थबोधप्रतिबन्धनाय ॥२८॥ सुजनैः किमजानद्भिः किं जानद्भिरसूयकैः। भाव्यं विशिष्टगोष्ठीषु जानद्भिरनसूयकैः ॥२९ ।। मूखैरपक्वबोधैस्तु सहालापश्चतुःफलः। वाचां व्ययो मनस्तापः ताडनं दुःप्रवादनम् ॥ ३० ॥ तस्मात् समं जनैर्भाव्यं शास्त्रयाथात्म्यवेदिभिः। प्रामाणिकैः प्रवादेषु कृताभ्यासैः कृपालुभिः ॥ ३१ ॥ गोष्ठयां सत्साधनैरेव स्वपक्षस्य समर्थनम्। सदूषणैर्विपक्षस्य तिरस्कारस्तयोर्मतः ॥ ३२॥
यह व्याख्यावाद करते हैं इसलिए इस में विजय अथवा पराजय का प्रश्न ही नही होता। गोष्ठीवाद
गोष्टीवाद में पुरुषों के लिए तत्त्व का अर्थ समझने में बाधा डालनेवाले पांच दोष इस प्रकार होते हैं-मत्सर, दुष्टता, अविचार, दुराग्रह तथा अच्छे वचनों की अवहेलना । न जाननेवाले सज्जनों से अथवा जाननेवाले मत्सरी लोगों से क्या लाभ ? विशिष्ट गोष्ठी में भाग लेनेवाले लोग जाननेवाले किन्तु मत्सर न करनेवाले होने चाहिएं | अबूरी समझबाले मूखोंसे बातचीत के चार फल प्राप्त होते हैं-शब्द खर्च होना, मन को कष्ट होना, मारपीट होना अथवा निंदा होना। अत: गोष्टी के सदस्य शास्त्रों का वास्तविक रूप जाननेवाले, समानशील, प्रामाणिक, दयालु तथा वादविवाद का अनुभव रखनेवाले होने
चाहिएं। गोष्ठी में उचित साधनों से ही अपने पक्ष का समर्थन करना चाहिए " तथा उचित दूषणों से ही प्रतिपक्ष का निषेध करना चाहिए । गोष्ठीवाद और . व्याख्यावाद में तत्त्व का ज्ञान दृढ होना यही उद्देश होता है अतः अपप्रयोग
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