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________________ -१.८७] [ ८७. व्याख्यावादः ] तत्र व्याख्यावादे व्याख्यावाद कुर्यात् सदाग्रहं शिष्यो विचारे शास्त्रगोचरे । वुभुत्सुस्तत्त्वयाथात्म्यं न कदाचिद् दुराग्रहम् ॥ २३ ॥ सदाग्रहः प्रमाणेन प्रसिद्धार्थद्ददाग्रहः । दुराग्रहो मनोभ्रान्त्या वाधितार्थददाग्रहः ॥ २४ ॥ सत्साधनेन पक्षस्य स्वकीयस्य समर्थनम् । सदूषणैर्विपक्षस्य तिरस्कारो गुरोः क्रिया ॥ २५६ ॥ सत्साधनदूषणे कीदृक्षे इत्युक्ते वक्ति व्याप्तिमान् पक्षधर्मश्च सम्यक साधनमुच्यते । तद्वैकत्यविभावस्तु सभ्यग्दृषणमुच्यते ॥ २६ ॥ असिद्धादयः साधनाभासाः । हलादयो दुषणाभासाः 1 व्याख्यावाद व्याख्यावाद में शास्त्रसंबंधी विचार होता है, उस में शिष्य तत्त्वों का वास्तविक स्वरूप जानने की इच्छा करते हुए सत्य के विषय में आग्रह करे, दुराग्रह कभी न करे । प्रमाण से सिद्ध होनेवाले विषय में दृढ आग्रह होना यह सदाग्रह ( सत्य का आग्रह अथवा योग्य आग्रह ) है । मन के भ्रम के कारण प्रमाणविरुद्ध विषय में दृढ आग्रह होना यह दुराग्रह कहलाता है | उचित साधनों से अपने पक्ष का समर्थन करना तथा रचित दूषणों से प्रतिपक्ष का निषेध करना यह ( व्याख्यावाद में ) गुरु का कार्य होता हैं । उचित साधन तथा दूषण कैसे होते हैं यह पूछने पर कहते हैं- व्याप्ति से युक्त पक्ष के धर्म को उचित साधन ( हेतु ) कहते हैं ( जिस का पहले विस्तार से वर्णन कर चुके हैं ) तथा उचित साधन की कमी बतलाना यही उचित दूषण होता है । असिद्ध इत्यादि साधन ( हेतु ) के आभास हैं तथा छल आदि दूषण के आभास हैं ( इन दोनों का पहले विस्तार से वर्णन हो चुका है ) । अनुग्रह के योग्य शिष्य के साथ समझानेवाले गुरु अनुग्रह के लिए. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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