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________________ ७५ प्रमाप्रमेयम् [१.८६विवादपदमुद्दिश्य वचोभिर्युक्तयुक्तिभिः। अङ्गीकृतागमार्थानां वचनं वाद उच्यते ॥२०॥ वादस्य स्वपक्षसाधनं साधनसमर्थनं परपक्षदूषणं दूषणसमर्थनं शब्ददोषवर्जनमिति अवयवाः पञ्च। अपशब्दापप्रयोगानन्वयदुरन्वयाप्रसिद्धापदानीति शब्ददोषाः पञ्च । तत्र वक्ष्यमाणभाषा पोढा । प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषाश्च शौरसेनी च। षष्टोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः॥२१॥ प्रतिवाद्यभिवाञ्छया एवंविधयुक्तियुक्तभाषाभिः अभिप्रेतार्थवादनं वाद। बादं त्रिधा वदिष्यन्ति व्याख्यागोष्टीविवादतः । गुरुविद्वजिगीषूणां शिष्यशिष्टप्रवादिभिः॥२२॥ जानेवाले वाद का वर्णन करते हैं। विवाद के विषय को लेकर उचित युक्तियों के वाक्यों द्वारा अपने द्वारा स्वीकृत आगम (शास्त्र) के अर्थ का वर्णन करना यह वाद कहलाता है । वाद के पांच अवयव हैं - अपने पक्ष की सिद्धि करना, उसके साधनों का समर्थन करना, प्रतिपक्ष के दूषण बतलाना, उन दूषणों का समर्थन करना तथा शब्द के दोषों से दूर रहना । शब्द के दोष पांच प्रकार के हैं - अपशब्द, अपप्रयोग (गलत प्रयोग), अनन्वय (असंबद्ध प्रयोग), दुरन्वय (जिसका संबन्ध समझना कठिन हो वह प्रयोग) तथा अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग । बाद में बोली जानेवाली भाषाएं छह प्रकार की हैं - प्राकृत, संस्कृत, मागध, पिशाच, शौरसेनी तथा छठवीं भाषा अपभ्रंश, जिसके भिन्न भिन्न प्रदेशों के कारण बहुतसे प्रकार हुए हैं। इस प्रकार की युक्तिसंगत भाषाओं द्वारा प्रतिवादी की इच्छानुसार अपने संमत अर्थ को कहना यह बाद है । वाद के तीन प्रकार हैं - व्याख्यावाद, जो गुरु शिष्य के साथ करता है; गोष्ठीवाद, जो विद्वान शिष्ट लोगों के साथ करता है; तथा विवादवाद, जो विजय की इच्छा करनेवाला वादी प्रतिवादी के साथ करता है - ये वे तीन प्रकार हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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