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________________ -१.८३] [ ८१. हीनम् ] अन्यतमेन अवयवेन न्यूनं हीनं नाम निग्रहस्थानम् । अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, यो यः कृतकः स सर्वोऽप्यनित्यः, यथा घटः, कृतकवायं शब्द इति ॥ हीन - अधिक निग्रहस्थान [ ८२. अधिकम् ] द्वयादिहेतुदृष्टान्तमधिकं नाम निग्रहस्थानम् । आकाशं वाह्येन्द्रियग्राह्यगुणरहितं नित्यत्वात् निरवयवत्वात् स्पर्शरहितत्वात् कालवत् आत्मवत् इत्यादि ॥ [ ८३. शेपाणि निग्रहस्थानानि ] शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तं नाम निग्रहस्थानम् अन्यत्रानुवादात् । परिषदा, परिज्ञातस्य वादिना त्रिरुपन्यस्तस्याप्रत्युच्चारणम् अननुभाषणं ७१ to निग्रहस्थान अनुमान का वाक्य किसी एक अवयव से न्यून हो तो वह हीन नामक निग्रहस्थान होता है । जैसे-शब्द अनित्य है क्यों कि वह कृतक है, जो जो कृतक होता है वह सभी अनित्य होता है, जैसे घट, और यह शब्द कृतक है | ( यहां अनुमान के वाक्य में अन्तिम अवयव निगमन - इस लिए शब्द अनित्य है - का प्रयोग नही किया गया है अतः यह हीन निग्रहस्थान हुआ ) । अधिक निग्रहस्थान शेष निग्रहस्थान दो या अधिक हेतुओं तथा दृष्टान्तों का प्रयोग करना यह अधिक नाम का निग्रहस्थान है । जैसे - आकाश में बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य गुण नही हैं क्यों कि वह काल के समान और आत्मा के समान नित्य है, अवयव -- रहित है तथा स्पर्शरहित है ( यहां नित्यत्व, निरवयत्व स्पर्शरहितत्व इन तीन हेतुओं का तथा काल और आत्मा इन दो दृष्टान्तों का प्रयोग किया गया है अतः यह अधिक निग्रहस्थान हुआ ) 1 " Jain Education International किसी शब्द या अर्थ का दुबारा प्रयोग करना यह पुनरुक्त नामक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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