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________________ ७० प्रमाप्रमेयम [ ७९. अपार्थकम् ] समुदायार्थापरिज्ञानम् अपार्थकं नाम निग्रहस्थानम् । अन्निः कृष्णोः वायुत्वात् जलवत् । [ ८० अप्राप्तकालम् ] समुद्रः पीयते मेघैः अहमद्य जरातुरः । अमी गर्जन्ति पर्जन्या हरेरैरावतः प्रियः ॥ १५ ॥ इत्यादि । [१.८० अवयवविपर्यासवचनम् अप्राप्तकालं नाम निग्रहस्थानम् । घटवत् कृतकत्वादनित्यः शब्दः इत्यादि ॥ अपार्थक निग्रहस्थान ( शब्दों के ) समूह के अर्थ का ज्ञान न होना यह अपार्थक नाम का निग्रहस्थान है । जैसे - अग्नि काला है क्यों कि वह वायु है जैसे जल ( यहां अग्नि, कृष्ण, वायु और जल ये चारों शब्द सार्थ होने पर भी उन के समूह का कोई अर्थ संगत नही हो सकता ) । समुद्र मेघों द्वारा पिया जाता है, मैं अब बुढापे से पीडित हूं, ये बादल गरज रहे हैं, इन्द्र को ऐरावत प्रिय है: ( यहां चारों वाक्यखंड सार्थ होने पर भी उन के समूह में अर्थ की कोई संगति नही है अतः यह अपार्थक निग्रहस्थान हुआ ) । Jain Education International अप्राप्तकाल निग्रहस्थान ( अनुमान वाक्य के ) अवयवों को उलट-पलट कर कहना यह अप्रातकाल नाम का निग्रहस्थान है । जैसे घट के समान कृतकः होने से अनित्य है शब्द ( यहां शब्द यह पक्ष अन्त में, अनित्यः होना यह साध्य उस के पहले, कृतक होना यह हेतु उस के पहले तथा घट यह दृष्टान्त प्रारंभ में कहा है; अनुमान वाक्य की रीति के अनुसार इन का क्रम ठीक उलटा अर्थात पक्ष - साध्य - हेतु - दृष्टान्त इस प्रकार होन चाहिए; अतः क्रम ठीक न होने से यह अप्राप्तकाल निग्रहस्थान हुआ ) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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