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________________ ~१.७८) अविज्ञातार्थक निग्रहस्थान अनित्यः शब्दः, कृतकत्वादिति हेतुः, हेतुश्च हिनोतेस्तुन्प्रत्यये उणादिकं 'पदं तस्य लिङ्गसंज्ञानन्तरं स्यात् व्युत्पत्तिः, हेतुः हेतू हेतवः इत्यादि ॥ [७७. निरर्थकम् ] अर्थरहितशब्दमात्रोच्चारणं निरर्थकं नाम निग्रहस्थानम् । उदाहरणम्- अनित्यः शब्दः अवहडमठपरतत्वात् नयभजखगसदचलवबंदित्यादि । [ ७८. अविज्ञातार्थकम् ] वादिना त्रिरुपन्यस्तमपि परिषत्प्रतिवादिभिः अविज्ञायमानम अविज्ञातार्थकम् नाम निग्रहस्थानं वादिनः । प्रतिवादिनोऽप्येवम् ॥ शब्द हि धातु को उणादि तुन् प्रत्यय लगाने से बना है, उस की व्युप्तत्ति लिङ्ग और संज्ञा के बाद होती है, (प्रथमा में उस के रूप हैं -) हेतुः हेतू हेतवः ( यहां हेतु शब्द का व्याकरण बतलाना अर्थान्तर है क्यों कि इस कः शब्द के अनित्य होने से कोई संबंध नहीं है – साध्य के लिए यह निरुपयोगी है)। निरर्थक निग्रहस्थान विना अर्थ के केवल ध्वनि का उच्चारण करना यह निरर्थक नाम का “निग्रहस्थान है । जैसे-शब्द अनित्य है क्यों कि वह नयभजखगसदचल जैसा अवहडमठपरत है ( यहां अवहडमठपरत तथा नयभजखगसदचल विना अर्थ के केवल ध्वनि हैं अतः यह निरर्थक निग्रहस्थान हुआ)। अविज्ञातार्थक निग्रहस्थान वादी के तीन बार कहने पर भी जिस को सभा तया प्रतिवादी न समझ सकें उसे वादी के लिए अविज्ञातार्थक नाम का निग्रहस्थान कहना चाहिये | इसी प्रकार प्रतिवादी के लिए भी निग्रहस्थान होगा (यदि उस के तीन बार कहने पर भी वादी और सभा उसे न समझ पाये)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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