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________________ - १.५७] प्रसंगसमा प्राप्य साध्यं प्रसाधयत्यप्राप्य वा । आद्येऽसिद्धो हेतुः प्राप्यसाध्यत्वात् साध्य स्वरूपवत् । द्वितीये तौ साध्यसाधनभावरहितौ मिथोऽप्राहत्वात् सह्यविन्ध्यवदिति ॥ [ ५७. प्रसंगसमा ] प्रमाणादिप्रश्नानवस्थानं प्रसंगसमा जातिः । अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत् इत्युक्ते घटे कृतकत्वात् अनित्यत्वं केन सिद्धम्, प्रत्यक्षेणे ते प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यं वेन, अन्येनेत्युक्ते तस्यापि केनेत्यादि ॥ ५७ साध्य को प्राप्त किये बिना ही सिद्ध करता है ऐसा कहा जाय तो इस हेतु . में और साध्य में साध्यसाधन का संबन्ध नहीं हो सकेगा क्यों कि वे दोनों सह्य पर्वत और विन्ध्यपर्वत के समान परस्पर अप्राप्त ( असंबद्ध ) हैं । (ये आक्षेप वास्तविक उष्ण न हो कर दूषणामास अर्थात जाति हैं क्यों कि इन में हं और साध्य के स्वाभाविक संबंध को न समझते हुए अनावश्यक प्रश्न उ' स्थित किये है; जहां धुंआ होता है वहां अग्नि होता है इस नियत संबन्ध के कारण ही धुंआ देखने पर अग्नि का अन्मान होता है. यहां धुंआ अग्निः की प्राप्त है कर सिद्ध करता है या प्राप्त हुए बिना सिद्ध करता है आदि प्र निरर्थक हैं । ) F प्रसंगममा जानि प्रमाण आदि क प्रश्नों से अनवस्था प्रसंग उपस्थित करना ( एक के बाद दूसरे प्रश्न को उपस्थित करते जाना प्रसंगसमा जाति है । जैस शब्द अनित्य है क्योंकि वह वृत्तक है जैसे घट इस अनुमान के प्रस्तुत करने पर यह पूछा कि घट कृतक है अत अनित्य हैं यह किस प्रमाण से सिद्ध हुआ है; यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है ऐसा उत्तर मिलने पर फिर पूछना कि वह प्रत्यक्ष प्रमाणभूत कैसे है. इस पर दूसरे प्रमाण का उल्लेख करनेपर फिर पूछना कि वह प्रमाणभूत कैसे है ( इस प्रकार प्रश्नों की परम्परा से मूल विषय को टालना ही प्रसंगसमा जाति है ) । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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