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प्रमाप्रमेयम्
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आधे बौद्धानामसिद्धः, द्वितीये अन्येषामसिद्धः । अब्रह्मात्मको ब्रह्मात्मको वा. आये वेदान्तिनामसिद्धः, द्वितीये अन्येषामसिद्धः । अप्रकृतिपरिणामः प्रकृतिपरिणामो वा, आधे सांख्यानामसिद्धः, द्वितीये अन्येषामसिद्धः इत्यादि ॥
[ ५६. प्राप्यप्राप्तिसमे !
हेतोः प्रात्या प्रत्यवस्थानं प्राप्तिसमा जातिः । अप्राप्त्या प्रत्यवस्थानम् अप्राप्तिसमा जातिः। अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदित्युक्ते अयं हेतुः
बौद्धेतर मत क्षणिक को नहीं मानते ) । यह हेतु ब्रह्मरूप है या अब्रह्मरूप है, यदि अब्ररूप हो तो वह वन्दान्तियों के लिए अद्धि होगा ( क्यों कि वे सभी वस्तुओं का ब्रह्मरूप मानते हैं ) तथा ब्रह्मरूप हो तो अन्य सब मतों को अमान्य होगा । यह हेतु प्रकृति का परिणाम है या नही है. यदि यह प्रकृति का परिणाम नही है तो मांख्यों के लिए असिद्ध होगा तथा प्रक्रांत का परिणाम हो तो अन्य सब मतों के लिए. असिद्ध होगा । ( इस प्रकार का कथन वास्तविक दुषण न हो कर दूपणाभास अर्थात जाति है क्योंकि जो कृतक होता है वह अनित्य होता हैं इस मूलभूत व्याप्ति में कोई दोष इस से प्रकट नहीं होता; कृतक होना एकान्त सेवा अनेकान्त से है आदि प्रश्नों का प्रस्तुत अनुमान से कोई सम्बन्ध नही है । प्राप्ति व अ सिसमा जाति
हेतु के ( साध्य को ) प्राप्त होने की आपत्ति उपस्थित करना प्राप्ति-समा जाति है । तथा अप्राप्त होने की आपत्ति उपस्थित करना अप्राप्तिसमा जाति है । उदाहरणार्थ - शब्द अनित्य है क्या कि वह घट जैसा कृतक है इस अनुमान का प्रयोग करने पर प्रश्न करना कि यहां हेतु साध्य को प्राप्त. हो कर उसे सिद्ध करता है या प्राप्त किये बिना ही सिद्ध करता है; यदि हेतु साध्य को प्राप्त हो कर उसे सिद्ध करे तो वह असिद्ध होगा क्यों कि वह अभी साध्य का प्राप्त होना है ( जो माध्य में नहीं है वह हेतु असिद्ध होता है, यह हेतु अभी साध्य को प्राप्त नही हुआ है अत: असिद्ध है ) जैसे साध्यः का स्वरूप ( साध्य का स्वरूप जिस तरह असिद्ध है उसी तरह यह हेतु भी असिद्ध होगा क्योंकि यह अभी साध्य को प्राप्त नही हुआ है ) । यदि हेतु,
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