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- १.१३]
प्रत्यभिज्ञान विद्यमानत्वात् चिरविनष्टत्वात् रामादिवदिति। तथा स्मृतिः प्रमाणं सम्यग्ज्ञानत्वात् शातार्थाव्यभिचारित्वात् बाधकेन विहीनत्वात् निर्दुष्ट. प्रत्यक्षवत् । अतस्मिस्तदिति प्रत्ययः स्मरणाभासः। यज्ञदत्ते स देवदत्त इति प्रतीतिः इत्यादि । [१३. प्रत्यभिज्ञानम् ]
दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम्। तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगि तदुक्तमेवेत्यादि । यथा स एवायं देवदत्तः, गोसशो गवयः, गोविलक्षणो महिषः इदमस्माद् दूरम्, वृक्षोऽयमित्यादि । वीतं प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणम् अविसंवादित्वात् गृहीतार्थाव्यभिभी इस तरह उपपत्ति नही लगती । जैसे कि - पुरातन अनुभव दिये हुए (धन) आदि के विषय में इस समय की प्रवृत्ति आदि का कारण नही हो सकता क्यों कि वह इस प्रवृत्ति के समय में विद्यमान ही नहीं है, वह राम आदि के समान बहुत पहलेही नष्ट हो चुका है । स्मृति इसलिए भी प्रमाण है कि वह यथार्थ ज्ञान है, ज्ञात अर्थ (जाने हुए पदार्थ) से उस का विरोध नहीं होता, उस में बाधक नहीं है, इन सब बातों में स्मृति निर्दोष प्रत्यक्ष के ही समान है । जो वह नही है उस के विषय में 'वह' इस प्रकार का ज्ञान होना स्मरण का आभास है, जैसे यज्ञदत्त के विषय में 'वह देवदत्त' इस प्रकार का स्मृति-ज्ञान स्मृति का आभास है। प्रत्यभिज्ञान
(किसी वस्तु के ) देखने तथा (पहले देखी हुई किसी वस्तु का) स्मरण करने से जो संकलित ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं जैसे
यह वही है, यह उस जैसा है, यह उस से भिन्न है, यह उस के उलटा है, • यह पहले ही कहा हुआ है इत्यादि । उदाहरणार्थ-यह वही देवदत्त है, गवय • गाय जैसा है, भैंसा गाय से भिन्न है, यह यहांसे दूर है, यह वृक्ष है इत्यादि । यह प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है क्यों कि वह अविसंवादी है (पदार्थों के स्वरूप से उस का विरोध नही होता) जाने हुए पदार्थ से वह विरुद्ध नहीं होता, वह बाधित नही होता, उस में बाधक नहीं है, इन सब बातों में • यह दोषरहित प्रत्यक्ष ज्ञान के समान ही है। सब वस्तुएं क्षणिक हैं
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