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प्रमाप्रमेयम्
[१-१४
चारित्वात् अवाध्यत्वात् बाधकेन हीनत्वात् निर्दुष्टप्रत्यक्षवत् । अथ सर्व क्षणिकं सत्वात् प्रदीपवत् इत्यनुमानं बाधकमस्तीति चेन्न । तस्यानध्यवसितत्वेन हेत्वाभासत्वात् । ननु लुनपुनर्जातनखकेशादौ प्रत्यभिज्ञानस्य भ्रान्तिदर्शनात् अप्रामाण्यमिति चेत् तर्हि रज्जुसर्पादौ प्रत्यक्षस्य भ्रान्तिदर्शनात् सर्वस्य प्रत्यक्षस्य अप्रामाण्यं स्यादिति अतिप्रसज्यते । सदृशे तदेवेदं तरिमन्नेव तत्सदृशम् इत्यादि प्रत्ययः प्रत्यभिज्ञाभासः ॥ [ १४. ऊहापोहः ]
अनेनेदं भवतीति विना न भवतीत्यादि याथात्म्यज्ञानम् ऊहापोहः ।
क्यों कि वे सत् हैं जैसे दीपक इस अनुमान से ( प्रत्यभिज्ञान के प्रमाण होने में ) बाधा उपस्थित होती है ( सब पदार्थ एक ही क्षण अस्तित्व में रहते हैं अतः यह वही है आदि ज्ञान- जो कि अनेक क्षणों में पदार्थ के अस्तित्व पर आधारित हैं- अप्रमाण हैं ऐसा मानना चाहिए) यह कथन ठीक नहीं । यह हेतु ( जो सत् हैं वे क्षणिक हैं यह कहना ) अनध्यवसित ( अनिश्चित ) होने से हेत्वाभास है । एक बार काटने पर नख तथा केश पुन: उगते हैं उन में ( ये वहीं नए केश हैं इस प्रकार का ) प्रत्यभिज्ञान भ्रमपूर्ण होता है ऐसा देखा जाता है अतः उसे अप्रमाण मानना चाहिए ऐसा यदि कहें तो रस्सी को सांप समझने में प्रत्यक्ष भी भ्रमपूर्ण होता है अतः सभी प्रत्यक्ष को अप्रमाण मानने का अतिप्रसंग आयेगा ( तात्पर्य - जिस तरह रस्सी में सांप का ज्ञान भ्रान्त होने पर भी सभी प्रत्यक्ष ज्ञान भ्रान्त नही होते उसी तरह फिर से उगे हुए नखों में प्रत्यभिज्ञान भ्रान्त होने पर भी सभी प्रत्यभिज्ञान भ्रान्त नही होते ) । जो उस जैसा है उस के विषय में यह वही है ऐसा समझना, उसी के विषय में यह उस जैसा है ऐसा समझना आदि प्रत्यभिज्ञान के आभास होते हैं ।
ऊहापोह
इस से यह होता है, इस के विना यह नही होता इस तरह के वास्त विक ज्ञान को ऊहापोह कहते हैं । जैसे-इच्छा पूरी होने से सब को सन्तोष
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