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प्रमाप्रमेयम्
[१.११[११. परोक्षभेदाः]
__ परोक्षं च आत्मावधानप्रत्यक्षादिकारणकं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहापोहतर्कानुमानागमभेदम् ॥ [१२. स्मृतिः]
संस्कारोबोधजनिता तदिति प्रतीतिः स्मृतिः। स देवदत्तः इत्यादि। स्मृतिः प्रमाणं दत्तनिक्षेपादिषु प्रवृत्तिप्राप्तिग्रहणान्यथानुपपत्तेः। अथ स्मृत्योबोधितप्राक्तनानुभवात् देवदत्तादिषु प्रवृत्यायुपपत्तेः अर्थापत्तेरन्यथोपपत्तिरिति चेत् न। प्राक्तनानुभवस्य विनष्टस्य उद्बोधनासंभवात् । तथा हि-प्राक्तनानुभवो नोबुध्यते इदानीमविद्यमानत्वात् चिरविनष्टत्वात् रामादिवत् । प्रवृत्यादिहेत्वनुपपत्तश्च । तथा हि-प्राक्तनानुभवो दत्तादिषु इदानींतनप्रवृत्यादिहेतुर्न भवति प्रवृत्यादिकालेऽपरोक्ष प्रमाण के भेद
परोक्ष प्रमाण वह है जिस में आत्मा के अवधान के साथ प्रत्यक्ष आदि कोई प्रमाण कारण होता हो । इसके छह प्रकार हैं - स्मृति, प्रत्याभिज्ञान, ऊहापोह, तर्क, अनुमान और आगम । स्मृति
(पहले हुए ज्ञान के ) संस्कार के उद्बोधन से उत्पन्न होनेवाले 'वह' इस प्रकार के ज्ञान को स्मृति कहते हैं, जैसे-वह देवदत्त । स्मृति प्रमाण है क्यों कि इस के विना दिये हुए अथवा धरोहर रखे हुए (धन आदि) के विषय में प्रवृत्त होना, प्राप्ति अथवा स्वीकार की उपपत्ति नही लगती (स्मृति के प्रमाण होने पर ही ये व्यवहार हो सकते हैं)। स्मृति के द्वारा जागृत हुए पुराने अनुभव से ही देवदत्त आदि के विषय में प्रवृत्ति होती है इस उपपत्ति से-अर्थापत्ति से दूसरे प्रकारसे (उक्त व्यवहार की ) उपपत्ति लगती है ( अतः स्मृति को प्रमाण मानना जरूरी नही) यह कहना ठीक नहीं क्यों कि पुराना अनुभव जागृत होना संभव नही क्यों कि वह नष्ट हो चुका होता है। जैसे कि ( अनुमान-प्रयोग होगा-) पुरातन अनुभव जागृत नहीं हो सकता क्यों कि वह इस समय विद्यमान नही है तथा राम आदि के समान बहुत पहले ही नष्ट हो चुका है । प्रवृत्ति आदि के कारण होने की
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