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________________ -१.१०] प्रत्यक्षाभास भावः। तत्र साधारणाकारदर्शनात् विशेषादर्शनात् उभयविशेषस्मरणात् संशयः। अयं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति। वादिविप्रतिपत्तेः शब्दो नित्यः अनित्यो वेति । क्वचिदनुपलब्धेश्च अत्र पिशाचोऽस्ति न वेति। साधा. रणाकारदर्शनात् विशेषादर्शनात् विपरीतविशेषस्मरणात् विपर्ययः। स्थाणौ पुरुषज्ञानम्, रजौ सर्पबुद्धिः, शुक्तिकाशकले रजतप्रतिपत्तिः, मरीचिकायां जलावबोधः। अर्थानामप्रतिपत्तिः अनध्यवसायः। स च ज्ञानस्य प्रागभावः संस्काररहितप्रध्वंसाभावश्च, न तु गच्छत्तृणस्पर्शादिज्ञानम् , तस्यावग्रहादिज्ञानत्वेन प्रमाणत्वात् । इति प्रत्यक्षप्रपञ्चः॥ आभास कहते हैं, अनध्यवसाय में निश्चय का अभाव होने से उसे सही या गलत नहीं कह सकते, अतः वह आभास नही है)। दो पदार्थों में सामान्य आकार के देखने से, उन के विशेष (अन्तर) के न देखने से तथा उन विशेषों के स्मरण से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान संशय कहलाता है । जैसे- यह ढूँठ है या पुरुष है । वादियों के मतभेद से शब्द नित्य है या अनित्य है ( ऐसा संशय भी होता है)। कहीं कहीं कुछ ज्ञान न होने से भी संशय होता है, जैसे- यहां पिशाच है या नही । साधारण आकार के देखने से, विशेष के न देखने से तथा विरुद्ध विशेष के स्मरण से जो ज्ञान होता है उसे विपर्यय कहते हैं, जैसे हूँठ को पुरुष समझना, रस्सी को साँप मानना, सीप के टुकडे में चांदी का ज्ञान तथा मृगजल में जल का ज्ञान । पदार्थो के ज्ञान के न होने को अनध्यवसाय कहते हैं, वह ज्ञान का प्रागभाव है (ज्ञान होने के पहले उसका जो अभाव है वह प्रागभाव कहलाता है ) अथवा संस्काररहित प्रध्वंसाभाव है ( ज्ञान नष्ट होने के बाद जो उस का अभाव है वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है, ऐसा प्रध्वंसाभाव जिस में पहले हुए ज्ञान का कोई संस्कार न बचे- अनध्यवसाय कहलाता है)। मार्ग में जाते हुए घासफूस आदि के स्पर्श के ज्ञान को अनध्यवसाय नही कहना चाहिए क्यों कि वह ज्ञान अवग्रह-ज्ञान होने से प्रमाण है ( अतः उसे प्रत्यक्षाभास नही कह सकते)। इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन पूरा हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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