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कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ भी विस्तार से लिखा हो क्यों कि शब्द के अनित्यत्व के विषय में प्राभाकर मीमांसकों के मत का खंडन इस प्रमाप्रमेय में नही पाया जाता जिसका उल्लेख विश्वतत्त्वप्रकाश पृ. ९३ पर है ।
६. सम्पादनसामग्री--इस ग्रन्थ की एकमात्र ताडपत्रीय प्रति के दर्शन हमने हुम्मच के श्रीदेवेन्द्रकीर्ति स्वामीजी के मठ में किये थे। यह प्रति कन्नड लिपि में है। मैसूर के श्री पद्मनाभ शर्मा के सहयोग से इस का देवनागरी रूपान्तर हमें प्राप्त हुआ। मठ से प्रति प्राप्त करने में श्रीमान पंडित भुजबलि शास्त्रीजी का सहयोग भी उल्लेखनीय रहा। इसी प्रति से यह संस्करण तैयार किया गया है। प्रति बहुत शुद्ध है । केवल एक स्थान पर (परिच्छेद २५ में) हम अर्थनिर्णय करने में असफल रहे हैं। जैसा कि ऊपर कहा है - यह ग्रन्थ एक बडे ग्रन्थ का पहला परिच्छेद है । अतः इस में किसी उपविभाग या प्रकरण आदि का विभाजन नहीं है। अध्ययन तथा अनुवाद की सुविधा के लिए हमने इसे १३० परिच्छेदों में विभक्त किया है तथा विषयानुसारी शीर्षक दिये हैं | अनुवाद प्रायः शब्दशः किया है तथा स्पष्टीकरण का भाग ब्रैकेटों में रखा है।
७. प्रमुख विषय--इस ग्रन्थ में आचार्य ने प्रमाण अर्थात यथार्थ ज्ञान के स्वरूप से संबंधित सभी विषयों का वर्णन किया है। प्रथम परिच्छेद में मंगलाचरण तथा विषयनिर्देश करने के बाद दूसरे परिच्छेद में प्रमाण का लक्षण सम्यक् ज्ञान अथवा पदार्थयाथात्म्यनिश्चय यह बतलाया है। परि० ३ से १० तक प्रत्यक्ष प्रमाण तथा उस के चार भेदों का - इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष एवं स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का वर्णन है। परि. ११ से १५ तक परोक्ष प्रमाण तथा उसके प्रकारों का - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क व ऊहापोह का वर्णन है। परोक्षं प्रमाण का सब से महत्त्वपूर्ण प्रकार अनुमान है, उस के छह अवयवों का - पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त, उपनय, तथा निगमन का वर्णन परि. १६ से २१ तक है। इन अवयवों में से हेतु के लक्षण की विशेष चर्चा परि. २२ से २५ तक है। परि. २६ से २८ तक अनुमान के तीन प्रकार बतलाये हैं - केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी । परि. २९ में इस से भिन्न प्रकार भी बतलाये हैं - दृष्ट,
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